भारत की उबलती भीड़ को खुराक चाहिए, कभी लाश चाहिए कभी बदला चाहिए: रवीश कुमार

मौत का बदला ही नहीं लिया जाता है। मृत्यु का शोक भी करते हैं। शोक की शालीनता का भी मान रखना चाहिए। सीमा से ख़बर आई है कि पाकिस्तान की सेना ने भारत के दो जवानों के सर काट लिये हैं। एक परिपक्व राष्ट्र या समाज को ऐसी ख़बरों के तुरंत बाद क्या करना चाहिए। शोक संतप्त परिवारों का ख़्याल रखना चाहिए या नहीं। आप सोशल मीडिया पर पक्ष विपक्ष की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन कीजिए। पता चलेगा कि किसी को शोक नहीं है। एक भीड़ बन गई है जो पार्थिव शरीर को छोड़ एक दूसरे को ललकारने में जुट गई है। हमारे राष्ट्रीय जीवन की कई कुंठाएं इस्लामाबाद से आयातित हैं। इन कुंठाओं की जड़ें इतनी गहरी हैं कि हमें पता भी नहीं चलता कि हम जानवर जैसे हुए जा रहे हैं। जलावन की लकड़ी की तरह ये कुंठाएं जलती रहती हैं।

यह इस बात का प्रमाण है कि जो ख़ुद को सरकार का समर्थक समझते हैं वो भी सारा काम छोड़कर उलाहना देने में जुट गए हैं। कोई राय दे रहा है कि भारत को भी आतंकवादी गुट बनाना चाहिए जिसे अंग्रेजी में नॉन स्टेट एक्टर कहते हैं। कोई कहता है कि विपक्ष में थे तो दिन रात ललकारते थे, अब हमला कीजिए। मन बनाइये और चढ़ाई कर दीजिए। जो विरोधी हैं वो भी दो जवानों की लाश के सामने खड़े होकर सरकार या समर्थकों को घेरने में लगे हैं। अब बोलो, हेमराज के वक्त तो कहा करते थे कि एक सर के बदले दस सर ले आयेंगे। हेमराज के वक्त भी कुंठित राष्ट्रवाद का मर्दाना प्रदर्शन हुआ था। उसके बाद से कोई हेमराज के घर झांकने तक नहीं गया है। सर्जिकल स्ट्राइक से माहौल तो बन गया और वाहवाही तो हो गई और फिर अपनी कुंठाओं की प्यास बुझाने वाली भीड़ भक्ति कांड का पाठ पढ़ने में व्यस्त हो गई। नोटबंदी से आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर टूट गई है। धीरे धीरे साफ होने लगा कि आतंकवाद भी वहीं हैं और नक्सलवाद भी वहीं हैं। आतंकवाद पर नेताजी का दिया जाने वाला भाषण भी वही है जैसे आतंकवाद की सारा समाधान उनके सतही भाषण में ही हैं।

क्या हम नायब सूबेदार परमजीत सिंह और हेड कांस्टेबल प्रेम सागर की क्रूर हत्या का शोक कर रहे हैं? सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं को देखकर लगता नहीं कि हम शोक में हैं। ऐसा लगता है कि किसी की शहादत कुंठित भारतीय मन के लिए उल्लास या खीझ का प्रदर्शन है। हमारा मन शोक संतप्त परिवारों के साथ नहीं है। हम सब खेमों में बंटकर ट्वीटर पर भड़ास निकालने में व्यस्त हैं। शहादत के सम्मान के नाम पर हम तरह तरह की नौटंकियां करने लगे हैं। शहीद के परिवार को हमारा साथ मिलना चाहिए तो यह भी समझना चाहिए कि उन्हें अंतिम विदाई के वक्त का एकांत भी चाहिए। रोने से लेकर चीखने तक सब कुछ पब्लिक में करना पड़ता है। देख कर ही पीड़ा होती है। लोग अपना सोच रहे हैं या परिवारों का भी सोच रहे हैं। भले आए हैं नेक इरादे से लेकिन क्या यह अच्छा नहीं होता कि एक घेरा बनता। जिससे परिवार की निजता भंग न होती। परिवार के सदस्य देश देश करने के अलावा आख़िरी बार लिपट कर कुछ और भी कह लेते, कुछ और भी रो लेते। शहादत को एक स्टैंडर्ड फार्मेट में बदला जा रहा है। आप ज़रा ठंडे दिमाग़ से सोचिये, ऐसा करते हुए हम सम्मान कम कर रहे हैं, शोक की शालीनता भंग कर रहे हैं।

भारत में मैगी नूडल्स की तरह एक भीड़ पैदा हो गई है। दो मिनट में सोशल मीडिया पर उबलने लगती है। इस भीड़ को बहस के लिए ख़ुराक चाहिए। कभी लाश चाहिए कभी बदला चाहिए। आख़िर चार दिन पहले कैप्टन आयुष यादव और दो जवानों की शहादत पर इतना ख़ून क्यों नहीं खौला। क्या हमारी सहनशीलता का यही पैमाना है कि जब सर काट ले जायेंगे तभी हम बदला-बदला चीखेंगे। कहीं यह बदला बदला करने का शोर प्रायोजित तो नहीं है. आखिर इस शोर में सरकार की नाकामी और उसकी नीतियों की विफलता क्यों नहीं है। कैप्टन आयुष यादव के पिता ने तो यह भी कहा था कि केंद्र सरकार की ग़लत नीतियों के कारण मेरा बेटा शहीद हुआ है।

हम बदहवासी में भागे जा रहे हैं। जैसे हमारे भीतर कुंठाओं की सूखी लकड़ी में किसी ने आग लगा दी है। हम सब अपनी आग से बचने के लिए भागे जा रहे हैं। इस आग को बुझाने के लिए एक राष्ट्रीय गौरव चाहिए। बंदूक और बमों का हमला चाहिए। हम पागल हो चुके हैं। रायसीना के सूबेदारों की तरफ सर उठाए भागे जा रहे हैं। चलो उठो, नरेंद्र, जला दो, बन जाओ दावानल। हमारे भीतर की आग बाहर की आग से ही बुझेगी। अमरीका भी इराक, अफगानिस्तान से लेकर सीरीया तक में कूदा हुआ है। आतंक से लड़ने के नाम पर दुनिया के दो चार मुल्क वीडियो गेम खेल रहे हैं। इस वीडियो गेम में सैनिक इंसान नहीं है। वो बस एक कैरेक्टर है जो गोली से मरता है और फिर दूसरा सैनिक एनिमेशन से उसी जगह पर मारने या मारे जाने के लिए आ जाता है। अपने सैनिकों की जान की क़द्र करने में यह बात भी शामिल है कि हमसे कहां चूक हो रही है। क्या बंदूक के अलावा कोई और रास्ता था, इस नुकसान को बचाने का? क्या उन तरीकों के न आज़माए जाने की चूक के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है? अगर नहीं है तो फिर हम बार बार हाय बंदूक, हाय बंदूक क्यों कर रहे हैं। अंतिम बार के लिए उठा क्यों नहीं लेते हैं? ये ट्वीटर और टीवी पर कब तक इस्लामाबाद की रोपी हुई कुंठाओं का जलावन जलता रहेगा?

आतंकवादियों ने जम्मू कश्मीर पुलिस के पांच जवानों को भी मार दिया है। क्या हमारा गुस्सा सब इस्पेक्टर मोहम्मद युसूफ, फारूक़ अहमद, मोहम्मद क़ासिम, अशफाक़ जैसे सिपाहियों के लिए भी है जिन्हें आतंकवादी दिन दहाड़े मार कर हथियार और 50 लाख कैश लूट गए। बैंक में काम करने वाले दो कर्मचारियों को भी मार गए। राज्य के लोग भी आतंकवाद के शिकार हो रहे हैं। ये लोग किस ज़मीन और किस राष्ट्रवाद के लिए मारे जा रहे हैं? क्या हमारा गुस्सा सैन्य शिविरों पर हो रहे छोटे छोटे हमलों पर भी हैं जिनमें हमारे जवानों और अफसरों की जानें जा रही हैं? शहीदों का सम्मान राजनीति का सामान बन रहा है। आतंकवाद किसने पैदा किया है, आतंकवाद पर बार बार एक ही भाषण देने वाले प्रधानमंत्री को पता है। क्या वो अमरीका का नाम ले सकते हैं? क्या वो उन अंतराष्ट्रीय परिस्थितियों का नाम ले सकते हैं? अमरीका में तो बहस हो गई कि आईसीस के पीछे उनके ही नेताओं और नीतियों का हाथ था, क्या हमारे यहां हो सकती है?

दुश्मन की हरकतों का हिसाब लिया जाना चाहिए। लिया भी जाता है। यह सरकार भी लेती है और पिछली सरकारों ने भी बदला लिया है। हमें सरकार को अपना वक्त चुनने का वक्त देना चाहिए। उसकी बात न करने की नीति फेल हो रही है। बात न करने की नीति से भारत ने क्या हासिल किया ? क्या पाकिस्तान पर कोई ठोस अंतर्राष्ट्रीय दबाव बना है? बात न करने की नीति का विकल्प है बदला लेने की नीति, जवाबी कार्रवाई की नीति। क्या इससे कुछ समाधान हुआ है? क्या हम अपने जवाब से उन्हें लंबे समय तक शांत कर पाये हैं?

बेहतर है सरकार को जो करना है, करने दीजिए। लोगों के गुस्से का लाभ उठाकर अपनी जगह मत बनाइये। बहुत से लोग इसी बहाने खुद को चमकाने में लग जाते हैं। राजनीतिक दल को चंदा कहा से मिलता है ये न बताने के कानून पास हो जाते हैं, ये वही लोग हैं जो टीवी पर आकर राष्ट्रवादी हो जाते हैं। राष्ट्र से ज़रुरत से ज़्यादा प्रेम का दिखावा करने लगते हैं। मेरा बस इतना कहना है कि जवानों की शहादत के वक्त हमारा राष्ट्रीय आचरण सीरीयल की ज़रूरतों के हिसाब से होता जा रहा है जो ठीक नहीं हैं। शोक की मर्यादा होनी चाहिए। जिससे लगे कि हमें धक्का लगा है। हम दुखी हैं। न कि टीवी पर जाकर भौंडा प्रदर्शन होना चाहिए। टीवी पर जाने से न तो पाकिस्तान को जवाब मिलता है न सरकार उसके हिसाब से पाकिस्तान को जवाब देती है। थोड़ा आप भी परमजीत और प्रेम सागर के परिवारों के लिए रो लीजिए। बुलंदशहर में विधायक के समर्थक नक्सली हमले में घायल जवान के घर पहुँचकर आतिशबाज़ी करने लगे। क्या यह सब ज़रूरी है ?

नोट: एक रक्षा मंत्री थे जो दिन रात एक गोली के बदले एक दुश्मन का नारा देते थे, लगा था कि इनसे बड़ा राष्ट्रवादी रक्षा मंत्री नहीं है, मगर बाद में पता चला कि इनके दिमाग़ में सेना का निर्माण या पुनर्निमाण नहीं, गोवा नाच रहा था। एक मिनट में रातों रात विरोधी खेमे से बहुमत जुटाने के लिए सेना छोड़ गोवा रवाना हो गए। ऐसा लगता है कि सेना को लेकर जज़्बाती बयान देना बस किसी नाटक के पात्र का संवाद बोलना भर है। कोई कह नहीं रहा है कि देश में पूर्णकालिक रक्षा मंत्री नहीं हैं। जो वित्त मंत्री हैं उन पर आर्थिक बदलाव की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी हैं। आख़िर उनके पास दो दो मंत्रालय चलाने का वक्त कहां से होता होगा, यह भी सोचना चाहिए।