हिटलर का जर्मनी बनते भारत में मुसलमानों के ख़ून का दाग भीड़ पर है और नेता आज़ाद: रवीश कुमार

जर्मनी की तमाम रातों में 9-10 नवंबर, 1938 की रात ऐसी रही जो आज तक नहीं बीती है. न वहां बीती है और न ही दुनिया में कहीं और. उस रात को क्रिस्टल नाइट (CRYSTAL NIGHT) कहा जाता है. उस रात की आहट आज भी सुनाई दे जाती है. कभी कभी सचमुच आ जाती है. हिटलर की जर्मनी में यहुदियों के क़त्लेआम का मंसूबा उसी रात जर्मनी भर में पूरी तैयारी के साथ ज़मीन पर उतरा था. उनका सब कुछ छीन लेने और जर्मनी से भगा देने के इरादे से, जिसके ख़िलाफ़ वर्षों से प्रोपेगैंडा चलाया जा रहा था.

1938 के पहले के कई वर्षों में इस तरह की छिटपुट और संगीन घटनाएं हो रही थीं. इन घटनाओं की निंदा और समर्थन करने के बीच वे लोग मानसिक रूप से तैयार किए जा रहे थे जिन्हें प्रोपेगैंडा को साकार करने लिए आगे चलकर हत्यारा बनना था. अभी तक ये लोग हिटलर की नाना प्रकार की सेनाओं और संगठनों में शामिल होकर हेल हिटलर बोलने में गर्व कर रहे थे. हिटलर के ये भक्त बन चुके थे. जिनके दिमाग़ में हिटलर ने हिंसा का ज़हर घोल दिया था.

हिटलर को अब खुल कर बोलने की ज़रूरत भी नहीं थी, वह चुप रहा, चुपचाप देखता रहा, लोग ही उसके लिए यहुदियों को मारने निकल पड़े. हिटलर की सनक लोगों की सनक बन चुकी थी. हिटलर की विचारधारा ने इन्हें ऑटो मोड पर ला दिया, इशारा होते ही क़त्लेआम चालू. हिटलर का शातिर ख़ूनी प्रोपेगैंडा मैनेजर गोएबल्स यहूदियों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा की ख़बरें उस तक पहुंचा रहा था.

उन ख़बरों को लेकर उसकी चुप्पी और कभी-कभी अभियान तेज़ करने का मौखिक आदेश सरकारी तंत्र को इशारा दे रहा था कि क़त्लेआम जारी रहने देना है. हिटलर की इस सेना का नाम था एसएस, जिसके नौजवानों को जर्मनी के लिए ख़्वाब दिखाया था. सुपर पावर जर्मनी, यूरोप का बादशाह जर्मनी. सुपर पावर बनने का यह ख़्वाब फिर लौट आया है. अमरीका फ्रांस के नेता अपने देश को फिर से सुपर-पावर बनाने की बात करने लगे हैं.

“हमें इस बात को लेकर बिल्कुल साफ रहना चाहिए कि अगले दस साल में हम एक बेहद संवेदनशील टकराव का सामना करने वाले हैं. जिसके बारे में कभी सुना नहीं गया है. यह सिर्फ़ राष्ट्रों का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह यहूदियों, फ्रीमैसनरी, मार्क्सवादियों और चर्चों की विचारधारा का भी संघर्ष है. मैं मानता हूं कि इन ताक़तों की आत्मा यहुदियों में है जो सारी नकारात्मकताओं की मूल हैं. वो मानते हैं कि अगर जर्मनी और इटली का सर्वनाश नहीं हुआ तो उनका सर्वनाश हो जाएगा. यह सवाल हमारे सामने वर्षों से है. हम यहुदियों को जर्मनी से बाहर निकाल देंगे. हम उनके साथ ऐसी क्रूरता बरतेंगे जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की होगी.“

यह भाषण आज भी दुनिया भर में अलग-अलग संस्करणों में दिया जा रहा है. भारत से लेकर अमरीका तक में. एसएस का नेता हिटलर ने 9-19 नवंबर, 1938 से चंद दिन पहले संगठन के नेताओं को भाषण दिया था ताकि वे यहुदियों के प्रति हिंसा के लिए तैयार हो जाएं. तैयारी पूरी हो चुकी थी. विचारधारा ने अपनी बुनियाद रख दी थी. अब इमारत के लिए बस ख़ून की ज़रूरत थी.

हम इतिहास की क्रूरताओं को फासीवाद और सांप्रदायिकता में समेट देते हैं, मगर इन संदूकों को खोल कर देखिए, आपके ऊपर कंकाल झपट पड़ेंगे. जो कल हुआ, वही नहीं हो रहा है. बहुत कुछ पहले से कहीं ज़्यादा बारीक और समृद्ध तरीक़े से किया जा रहा है. विचारधारा ने जर्मनी के एक हिस्से को तैयार कर दिया था.

7 नवंबर, 1938 की रात पेरिस में एक हत्या होती है जिसके बहाने जर्मनी भर के यहूदियों के घर जला दिए जाते हैं. इस घटना से हिटलर और गोएबल्स के तैयार मानस-भक्तों को बहाना मिल जाता है जैसे भारत में नवंबर, 1984 में बहाना मिला था, जैसे 2002 में गोधरा के बाद गुजरात में बहाना मिला था.

7 नवंबर को पेरिस में जर्मनी के थर्ड लिगेशन सेक्रेट्री अर्नस्ट वॉम राथ की हत्या हो जाती है. हत्यारा पोलैंड मूल का यहूदी था. गोएबल्स के लिए तो मानो ऊपर वाले ने प्रार्थना कबूल कर ली हो. उसने इस मौक़ों को हाथ से जाने नहीं दिया. हत्यारे के बहाने पूरी घटना को यहुदियों के ख़िलाफ़ बदल दिया जाता है.

यहूदियों की पहले से ही प्रोपेगैंडा के ज़रिये निशानदेही की जा रही थी. उन्हें खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा था. चिंगारी सुलग रही थी, हवा का इंतज़ार था, वो पूरा हो गया. गोएबल्स ने अंजाम देने की तैयारी शुरू कर दी. उसके अलगे दिन जर्मनी में जो हुआ, उसके होने की आशंका आज तक की जा रही है.

पिछले सात आठ सालों से हिटलर ने अपने समर्थकों की जो फौज तैयार की थी, अब उससे काम लेने का वक़्त आ गया था. उस फ़ौज को खुला छोड़ दिया गया. पुलिस को कह दिया गया कि किनारे हो जाए बल्कि जहां यहूदियों की दुकानों को जलाना था, वहां यहूदियों को सुरक्षा हिरासत में इसलिए लिया गया ताकि जलाने का काम ठीक से हो जाए.

सारे काम को इस तरह अंजाम दिया गया ताकि सभी को लगे कि यह लोगों का स्वाभाविक ग़ुस्सा है. इसमें सरकार और पुलिस का कोई दोष नहीं है. जनाक्रोश के नाम पर जो ख़ूनी खेल खेला गया उसका रंग आज तक इतिहास के माथ से नहीं उतरा है. ये वो दौर था जब यूरोप में आधुनिकता अपनी जवानी के ग़ुरूर में थी और लोकतंत्र की बारात निकल रही थी.

गोएबल्स ने अपनी डायरी में लिखा है, “मैं ओल्ड टाउन हॉल में पार्टी के कार्यक्रम में जाता हूं, काफ़ी भीड़ है. मैं हिटलर को सारी बात समझाता हूं. वो तय करते हैं कि यहूदियों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होने दो, पुलिस से पीछे हटने को कहो. यहूदियों को लोगों के ग़ुस्से का सामना करने दो. मैं तुरंत बाद पुलिस और पार्टी को आदेश देता हूं. फिर मैं थोड़े समय के लिए पार्टी कार्यक्रम में बोलता हूं. खूब ताली बजती है. उसके तुरंत बाद फोन की तरफ़ लपकता हूं. अब लोग अपना काम करेंगे.”

आपको गोएबल्स की बातों की आहट भारत सहित दुनिया के अख़बारों में छप रहे तमाम राजनीतिक लेखों में सुनाई दे सकती है. उन लेखों में आपको भले गोएबल्स न दिखे, अपना चेहरा देख सकते हैं. जर्मनी में लोग ख़ुद भीड़ बनकर गोएबल्स और हिटलर का काम करने लगे. जो नहीं कहा गया वो भी किया गया और जो किया गया उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया. एक चुप्पी थी जो आदेश के तौर पर पसरी हुई थी. इसके लिए प्रेस को मैनेज किया गया.

पूरा बंदोबस्त हुआ कि हिटलर जहां भी जाए, प्रेस उससे यहूदियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को लेकर सवाल न करे. हिटलर चुप रहना चाहता था ताकि दुनिया में उसकी छवि ख़राब न हो. चेक संकट से बचने के लिए उसने यहूदी वकीलों के बहिष्कार के विधेयक पर दस्तख़त तो कर दिया मगर यह भी कहा कि इस वक़्त इसका ज़्यादा प्रचार न किया जाए. वैसे अब प्रोपेगैंडा की ज़रूरत नहीं थी. इसका काम हो चुका था. यहूदियों के ख़िलाफ़ हिंसा के दौर का तीसरा चरण होने वाला था.

1933 की शुरूआत में जर्मनी में 50,000 यहूदी बिजनेसमेन थे. जुलाई 1938 तक आते आते सिर्फ़ 9000 ही बचे थे. 1938 के बसंत और सर्दी के बीच इन्हें एकदम से धकेल कर निकालने की योजना पर काम होने लगा. म्यूनिख शहर में फरवरी, 1938 तक 1690 यहूदी बिजनेसमेन थे, अब सिर्फ़ 660 ही बचे रह गए.

यहूदियों के बनाए बैंकों पर क़ब्ज़ा हो गया. यहूदी डॉक्टर और वकीलों का आर्थिक बहिष्कार किया जाने लगा. आर्थिक बहिष्कार करने के तत्व आज के भारत में भी मिल जाएंगे. आप इस सिक्के को किसी भी तरफ़ से पलट कर देख लीजिए, यह गिरता ही है आदमी के ख़ून से सनी ज़मीन पर.

यहूदियों से कहा गया कि वे पासपोर्ट पर जे लिखें. यहूदी मर्द अपने नाम के आगे इज़राइल और लड़कियां सैरा लिखें जिससे सबको पता चल जाए कि ये यहूदी हैं. नस्ल का शुद्धीकरण आज भी शुद्धीकरण अभियान के नाम से सुनाई देता ही होगा. चाहे आप कितना भी रद्दी अख़बार पढ़ते होंगे.

यहूदियों के पूजा घरों को तोड़ा जाने लगा. क़ब्रिस्तानों पर हमले होने लगे. 9 नवंबर की रात म्यूनिख के सिनेगॉग को नात्ज़ी सेना ने जला दिया. कहा गया कि इसके कारण ट्रैफिक में रूकावट आ रही थी. आग बुझाने वाली पुलिस को आदेश दिया गया कि यहुदियों की जिस इमारत में आग लगी है, उस पर पानी की बौछारें नहीं डालनी हैं, बल्कि उसके पड़ोस की इमारत पर डालनी है ताकि किसी आर्यन मूल के जर्मन का घर न जले. आग किसी के घर में और बुझाने की कोशिश वहां जहां आग ही न लगी हो. यही तर्क अब दूसरे रूप में है.

आप जुनैद की हत्या के विरोध में प्रदर्शन कीजिए तो पूछा जाएगा कि कश्मीरी पंडितों की हत्या के विरोध में प्रदर्शन कब करेंगे. जबकि जो पूछ रहे हैं वही कश्मीरी पंडितों की राजनीति करते रहे हैं और अब सरकार में हैं. कभी-कभी बताना चाहिए कि कश्मीरी पंडितों के लिए किया क्या है.

बहरहाल, नफ़रत की भावना फैलाने में जर्मन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों ने भी सक्रिय भूमिका निभाई. वे क्लास रूम में यहूदियों का चारित्रिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर पढ़ा रहे थे जैसे आज कल व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी में मुसलमानों का चारित्रिक विश्लेषण होता रहता है. जर्मनी के नौकरशाह ऐसे विधेयक तैयार कर रहे थे जिससे यहुदियों की निशानदेही हो. उनके मौलिक अधिकार ख़त्म किये जाएं.

जो लोग यहुदियों के समर्थन में बोल रहे थे, वहां की पुलिस पकड़ कर ले जा रही थी. दस साल के भीतर जर्मनी को यहूदियों से ख़ाली करने का आदेश हिटलर गोएबल्स को देता है. सब कुछ लोग कर रहे थे, सरकार कुछ नहीं कर रही थी. सरकार बस यही कर रही थी कि लोगों को अपने मन का करने दे रही थी.

गोएबल्स यहूदी मुक्त जर्मनी को अंजाम देने के लिए तेज़ी से काम कर रहा था. वह अपनी बेचैनी संभाल नहीं पा रहा था. इसके लिए वो सबसे पहले बर्लिन को यहूदी मुक्त बनाने की योजना पर काम करता रहता था. बर्लिन में यहूदियों को पब्लिक पार्क में जाने से रोक दिया गया. लोगों ने उनकी दुकानों से सामान ख़रीदना बंद कर दिया. दुकानों पर निशान लगा दिए गए कि यह दुकान किसी यहूदी की है.

यहूदियों के लिए अलग से पहचान पत्र जारी किए गए. रेलगाड़ी में विशेष डब्बा बना दिया गया. यहूदी मिली-जुली आबादी के साथ रहते थे. वहां से उजाड़ कर शहर के बाहर अलग बस्ती में बसाने की योजना बनने लगी. इसके लिए पैसा भी अमीर यहूदियों से देने को कहा गया. कोशिश यही थी कि हर जगह यहूदी अलग से दिख जाएं ताकि उन्हें मारने आ रही भीड़ को पहचानने में चूक न हो.

आज कल लोग ख़्वामख़ाह आधार नंबर से डर जाते हैं. जैसे इतिहास में पहले कभी कुछ हुआ ही नहीं. आधार कार्ड से पहले भी तो ये सब हो चुका है. उसके बिना भी तो हो सकता है. बीमा कंपनियों से कह दिया गया था कि यहूदियों की दुकानों, मकानों के नुकसान की भरपाई न करें. यहूदियों को हर तरह से अलग-थलग कर दिया गया.

जर्मनी का पुलिस मुख्यालय इस नरसंहार की नोडल एजेंसी बन गया. दुकानें तोड़ी जाने लगीं. 9-10 नवंबर की रात यहूदियों के घर जलाए जाने लगे. एसएस के लोग दावानल की तरह फैल गए. बर्लिन में 15 सिनेगॉग जला दिए गए. हिटलर आदेश देता है कि 20 से 30 हज़ार यहूदियों को तुरंत गिरफ़्तार किया जाए. जेल में जगह नहीं थी इसलिए सिर्फ़ मर्द और अमीर यहूदियों को गिरफ़्तार किया गया था.

जब उस रात गोएबल्स होटल के अपने कमरे में गया तो यहूदी घरों की खिड़कियां तोड़ने की आवाज़ें आ रही थीं, उसने अपनी डायरी में लिखा, शाबाश, शाबाश. जर्मन लोग अब भविष्य में याद रखेंगे कि जर्मन राजनयिक की हत्या का क्या मतलब होता है. याद रखने की राजनीति आज भी दुनिया में हो रही है. बिल्कुल आपकी आंखों के सामने. बहुत हद तक आपके समर्थन से ही!

नवंबर, 1938 की उस रात सैंकड़ों की संख्या में यहूदियों की हत्या कर दी गई. महिलाएं और बच्चों को बुरी तरह ज़ख्मी किया गया. 100 के करीब पूजास्थल बर्बाद कर दिए गए. 8000 दुकानें जला दी गईं. अनगिनत अपार्टमेंट को तहत-नहस कर दिया गया. बड़े शहरों के पेवमेंट पर शीशे के टुकड़े बिखरे हुए थे. दुकानें सामने सड़कों पर बिखरी हुई थीं. यहूदियों की स्मृतियों से जुड़ी हर चीज़ नष्ट कर दी गई थी, यहां तक कि उनकी निजी तस्वीरें भी.

उस रात बहुत से यहूदी मर्दों और औरतों ने ख़ुदकुशी भी कर ली. बहुत से लोग घायल हुए जो बाद में दम तोड़ गए. पुलिस ने 30,000 मर्द यहूदियों को ज़बरन देश से बाहर निकाल दिया. सब कुछ लोग कर रहे थे. भीड़ कर रही थी. हिटलर भीड़ को निर्देश नहीं दे रहा था. जो भीड़ बनी थी, उसमें अनेक हिटलर थे. विचारधारा के इंजेक्शन के बाद उसे करना यही था कि अपने शत्रु को मारना था. जिसे हिटलर के साथी लगातार प्रोपेगैंडा के ज़रिये बता रहे थे कि हमारे शत्रु यहूदी हैं.

यहूदियों के ख़िलाफ़ हिटलर की जर्मनी में जो लगातार प्रोपेगैंडा चला, उसी के हिस्से ये कामयाबी आई. बड़े-बड़े इतिहासकारों ने लिखा है कि प्रोपेगैंडा अपना काम कर गया. हर तरह एक ही बात का प्रचार हो रहा था. दूसरी बात का वजूद नहीं था. लोग उस प्रोपेगैंडा के सांचे में ढलते चले गए. लोगों को भी पता नहीं चला कि वे एक राजनीतिक प्रोपेगैंडा के लिए हथियार में बदल दिए गए हैं. आज भी बदले जा रहे हैं.

जर्मनी में पुलिस ने गोली नहीं चलाई, बल्कि लोग हत्यारे बन गए. जो इतिहास से सबक नहीं लेते हैं, वो आने वाले इतिहास के लिए हत्यारे बन जाते हैं. प्रोपेगैंडा का एक ही काम है. भीड़ का निर्माण करना. ताकि ख़ून वो करे, दाग़ भी उसी के दामन पर आए. सरकार और महान नेता निर्दोष नज़र आएं. भारत में सब हत्या करने वाली भीड़ को ही दोष दे रहे हैं, उस भीड़ को तैयार करने वाले प्रोपेगैंडा में किसी को दोष नज़र नहीं आता है. कोई नहीं जांच करता कि बिना आदेश के जो भीड़ बन जाती है उसमें शामिल लोगों का दिमाग़ किस ज़हर से भरा हुआ है.

हिटलर जर्मन भीड़ पर फ़िदा हो चुका था. वो झूम रहा था. भीड़ उसके मुताबिक बन चुकी थी. यहूदी जैसे-तैसे जर्मनी छोड़कर भागने लगे. दुनिया ने उनके भागने का रास्ता भी बंद कर दिया. ख़ुद को सभ्य कहने वाली भीड़ को लेकर चुप थी. यही नहीं भीड़ से प्रोत्साहित होकर हिटलर ने एक नायाब क़ानून बनाया. यहूदियों को अपने नुकसान की भरपाई ख़ुद ही करनी होगी. जैसे वो अपनी दुकानों और घरों में आग ख़ुद लगाकर बैठे थे. जब भीड़ का साम्राज्य बन जाता है तब कुतर्क हमारे दिलो-दिमाग़ पर राज करने लगता है.

इसीलिए कहता हूं कि भीड़ मत बनिए. संस्थाओं को जांच और जवाबदेही निभाने दीजिए. जो दोषी है उसकी जांच होगी. सज़ा होगी. हालांकि यह भी अंतिम रास्ता नहीं है. हिटलर की जर्मनी में पुलिस तो भीड़ की साथी बन गई थी. मेरी राय में भीड़ बनने का मतलब ही है कि कभी भी और कहीं भी हिटलर का जर्मनी बन जाना. अमरीका में यह भीड़ बन चुकी है. भारत में भी भीड़ लोगों की हत्या कर रही है. अभी इन घटनाओं को इक्का-दुक्का के रूप में पेश किया जा रहा है.

जर्मनी में पहले दूसरे चरण में यही हुआ. जब तीसरा चरण आया तब उसका विकराल रूप नज़र आया. तब तक लोग छोटी-मोटी घटनाओं के प्रति सामान्य हो चुके थे. इसीलिए ऐसी किसी भीड़ को लेकर आशंकित रहना चाहिए. सतर्क भी. भीड़ का अपना संविधान होता है. अपना देश होता है. वो अपना आदेश ख़ुद गढ़ती है, हत्या के लिए शिकार भी. दुनिया में नेताओं की चुप्पी का अलग से इतिहास लिखा जाना चाहिए, ताकि पता चले कि कैसे उनकी चुप्पी हत्या के आदेश के रूप में काम करती है.

“THE RADICALISATION ENCOUNTERED NO OPPOSITION OF ANY WEIGHT” मैं जिस किताब से आपके लिए किस्से के रूप में पेश कर रहा हूं, उसकी यह पंक्ति देखकर चौंक गया. चौंक इसलिए गया कि लगा कि भारत के अख़बारों में ऐसा कुछ पढ़ने को तो नहीं मिला है. हिटलर की मानस सेना का किसी भी प्रकार का विरोध ही नहीं हुआ. आम लोग अपनी शर्मिंदगी का इज़हार करते रहे कि उनके समाज में ये सब हुआ मगर ख़ुद को लाचार कहते रहे. जो बोल सकते थे, वो चुप रहे. अपने पड़ोसी को प्यार करने की बात सिखाने वाले चर्चों के नेता भी चुप रहे. दुनिया के कई देशों ने यहूदियों को शरण देने से मना कर दिया.

हम चुप हैं कि दिल सुन रहे हैं… ये गाना आपको अंतरात्मा के दरवाज़े तक ले जाता है. सुनिए. प्रधानमंत्री मोदी का शुक्रिया कि वो इज़रायल दौरे पर होलोकॉस्ट मेमोरियल गए. न गए होते तो इतना कुछ याद दिलाने के लिए नहीं मिलता. उन्होंने मेमोरियल में मारे गए यहूदियों के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित नहीं किए हैं, बल्कि मारने वाले हत्यारे हिटलर को भी खारिज किया है. वहां जाते हुए उन्होंने हिटलर की क्रूरता के निशान देखे होंगे.

राष्ट्र प्रमुखों की ऐसी यात्राएं सिर्फ़ उनके लिए नहीं होती हैं, हमारे सीखने के लिए भी होती हैं. हम भी कुछ सीखें. समझें तो वाकई ये दुनिया मोहब्बत के रंग में रंगी एक नज़र आएगी. इज़रायल की जैसी भी छवि है, यहूदियों के साथ जो हुआ, उसके लिए दुनिया आज भी अपराधी है. मगर उसी इज़राइल पर फिलिस्तीन क्रूरता बरतने और नरसंहार करने का आरोप लगाता है. क्या हिंसा का शिकार समाज अपने भोगे हुए की तरह या उससे भी ज़्यादा हिंसा करने की ख़्वाहिश रखता है! गांधी ने तभी अंहिसा पर इतना ज़ोर दिया. अंहिसा नफ़रतों के कुचक्र से मुक्ति का मार्ग है. हम कब तक फंसे रहेंगे?