सार्वजनिक तौर पर एक सैनिक ज़िंदा या वीरगति को प्राप्त, कैसे देखा जाएगा, इसके लिए समाज को सदियों से प्रशिक्षित किया गया है। सैनिक जैसे देखा जाता है, वैसे ही देखा जाता रहा है। पक्ष और विपक्ष में सदियों पहले सारी दलीलें फिक्स हो चुकी हैं। हमें लगता है कि हमारी दलील पहली बार बोली जा रही है लेकिन वो किसी और कालखंड, भू-खंड में भी बोली जा चुकी हैं। बीसवीं सदी ने करोड़ों लोगों को राष्ट्रवाद की सनक में मौत की आग में झोंक दिया। लोग मच्छर-मक्खियों की तरह मारे गए और नेताओं ने बचे हुए लोगों के बीच ताली पिटवाने वाली बातें बोलकर ख़ुद को महान साबित कर लिया।
आज शाम जापान के टीवी चैनल NHK पर 20 वीं सदी के कुछ वीडियो देख रहा था। प्रथम विश्व युद्ध में करोड़ों आदमियों को सैनिक की वर्दी पहनाकर मारे जाने के वीडियो के बीच जब भी चर्चिल से लेकर रुजवेल्ट जैसे नेता दिखे, आराम और सिगार के साथ। उधर मोर्चे पर बिछी लाशों पर मक्खियां भिनभिना रही हैं। ठेले गाड़ी से लाशें उतार कर फेंकी जा रही हैं। युद्ध में मारे जाने को लेकर गौरव भाव पैदा हो, इसके लिए बच्चों के बीच युद्ध के खेल को प्रोत्साहित किया जा रहा है, आसमान में सैंकड़ों बमवर्षक विमान उड़ रहे हैं। डाक्यूमेंट्री के आख़िर में एक छोटी सी बच्ची है जो बैशाखी पर चल रही है, साथ में उसकी उम्र का एक लड़का है, जिसके हाथ में गठरी है, और किनारे किनारे समंदर ऐसे हैं जैसे उसे कोई फर्क ही न पड़ा हो।
डनकिर्क एक फिल्म आई है,आप उसे देखियेगा। यह फिल्म आपसे कुछ नहीं कहती है। उसे पता है कि आप युद्ध,नेता और सैनिक के बारे में क्या कहना चाहेंगे। यह फिल्म ख़ुद से कहती है।आपको दिखाती है कि जब सैनिक युद्ध में मरता है तब वो सैनिक नहीं होता है। वो अपनी मौत को वैसे नहीं देखता, जैसे बाद में दुनिया देखती है। सैनिक वर्दी और बंदूक के साथ उतना ही मासूम लगता है जितना हम और आप हो सकते हैं।
फिल्म बैकग्राउंड म्यूज़िक के दम पर फालतू का बलिदान या गौरव भाव फुलाने का प्रयास नहीं करती है बल्कि आपको एक जगह ले जाकर छोड़ देती है कि देखिये, लाखों सैनिक एक दूसरे को मरते हुए कैसे देखते हैं। फ्रेंच में इसे डनकर्क कहा जाता है।
फिल्म में जब भी फ़ाइटर प्लेन आता है, उससे पहले उसकी आवाज़ की दहशत आती है। सैनिक फ़ाइटर प्लेन का स्वागत नहीं करता है। सारे सैनिक फाइटर प्लेन देखते ही अपने डर को ओढ़ लेते हैं। डर ही ढाल बन जाता है। उस ख़ौफ़ की खोल में वे ख़ुद को छिपा लेना चाहते हैं। शायद उस वक्त सबसे महफ़ूज़ जगह ख़ौफ़ ही होती होगी।
यह फिल्म एक दर्शक की भी वही हालत कर देती है जो सैनिक की हो जाती है। सदियों से मांजी जा चुकी दलीलें आपको छोड़ जाती हैं जैसे डनकिर्क में लाखों सैनिकों के हाथ में बंदूक है,गोलियां हैं मगर आसमान की तरफ चलाना भूल जाते हैं। गिद्ध की तरह आते फाइटर प्लेन को देखकर मरी हुई मछली की तरह लेट जाते हैं।
बहुत छोटा सा शहर है डनकिर्क। फ्रांस के तट पर। दूसरे विश्व युद्ध में यहां ब्रिटेन के चार लाख सैनिक फंस गए थे। जर्मनी ने उत्तरी फ्रांस को घेर लिया, इस कारण ब्रिटेन की सेना फ्रांस की सेना से अलग होकर डनकिर्क में फंस गई। नात्ज़ी सेना के आतंक से डनकिर्क शहर के लोग भाग खड़े हुए। वीरान सा शहर दिखता है फिल्म के शुरू में। जर्मन सेना का प्रोपेगैंडा पर्चा कटी पतंग की तरह गिर रहा है। जिस पर लिखा है कि ब्रिटेन की सेना बचकर नहीं जा सकती। वो पूरी तरह घिर गई है। तीन चार नौजवान सैनिक उस ख़ाली शहर में चल रहे हैं तभी गोलियां आती हैं और उनमें से कइयों को मार गिराती हैं। एक बचता है जो भागता हुआ सागर के तट पर पहुंचता है। जहां लाखों की संख्या मे ब्रिटेन की सेना मरने और भागने के बीच ज़िंदगी का इंतज़ार कर रही है। वहां से ब्रिटेन का किनारा मात्र 21 मील है मगर चार लाख सैनिकों को निकालना असंभव काम है। जर्मनी यह बात जानता था। ब्रिटेन चाहता तो सारे बेड़े भेजकर सैनिकों को बचा सकता था लेकिन एक एक कर बेड़े भेजता है जो वहां फंसे सैनिकों के लिए काफी नहीं था। 10 मई 1940 की घटना है।
फिल्म में जल सेना और थल सेना के कमांडर की बहस बेहद कम संवाद में होती है। वे हारी हुई सेना के नायक हैं। सारा ज़ोर जान बचाने पर है। लड़ते हुए मर जाने पर। उन्हें पता है जर्मन सेना की ताकत के सामने बहादुरी के नारों का मतलब नहीं। एडमिरल कहता है कि प्रधानमंत्री चर्चिल आगे के युद्ध के लिए अपने बेड़े बचा कर रखना चाहते हैं। वो सिर्फ 30,000 सैनिकों की वापसी चाहते हैं। थल सेना का कप्तान कहता है कि युद्ध तो यहां हैं। ये नहीं बचेंगे तो क्या बचेगा।
फिल्मकार ने इस फिल्म को जिस तरह से पर्दे पर उतारा है,अदभुत है। आप इस फिल्म के हर क्षण में युद्ध के समर्थन और उसके बहाने नेताओं की अपनी दुकान चमकाने के खेल को तार तार होते देखेंगे। फिर भी हमारी ट्रेनिंग ऐसी है कि युद्ध के पक्ष में ही खड़े नज़र आएंगे। हज़ारों सैनिक जेटी में ठूंसे खड़े हैं ताकि जो भी बेड़ा आएगा, उसमें जाने की जगह मिल जाएगी। कोई किसी को रास्ता नहीं देता है, सब पहले जहाज़ पर चढ़ जाना चाहते हैं। सब घर जाना चाहते हैं। जब भी ब्रिटिश जहाज़ आता है, आसमान में एक जर्मन फाइटर प्लेन भी आता है। बम गिरा जाता है। कोई जहाज़ छोड़ कर भागता है तो कोई वहीं डूब मरता है। हज़ारों सैनिकों के एक साथ डूबने मरने के दृश्य आपको निहत्था कर देते हैं।
इस फिल्म में बार बार जर्मन फाइटर प्लेन आते हैं। उनके आने की चीख़ को फिल्मकार ख़ास तरीके से दर्ज करता है। जब जब जहाज़ आते हैं, तब तब कुछ हज़ार सैनिक मारे जाते हैं। उनकी टोपियां बिखरी मिलती हैं, वर्दी मिलते हैं, जूते भी मगर लाशें ग़ायब हो जाती है। मैंने युद्ध पर बनी फिल्में कम देखी हैं, जो भी देखी हैं उसमें एक नायक तो होता ही है जो आख़िर आख़िर तक लड़ रहा होता है, लड़ता हुआ हमारे दिल में उतर जाए, इसके लिए पीछे से गाने भी बज रहे होते हैं। मोहम्मद रफी, महेंद्र कपूर और लता मंगेशकर की आवाज़ में।
90 मिनट की इस फिल्म में कोई नायक नहीं है। जहां लाखों सैनिक फंसे हों, वहां कोई नायक नहीं है। एक दर्शक के तौर पर हमने युद्ध पर बनी फिल्मों को देखने की जो ट्रेनिंग पाई है, उसके हिसाब से यह फिल्म बग़ैर नायक के है। दरअसल सैनिकों में कोई नायक नहीं होता है। नायक गढ़ा जाता है। सैनिक सिर्फ मारा जाता है या बच जाता है। फिल्म जब ख़त्म होती है तब डनकिर्क के नायक सैनिक नहीं हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल हैं। अखबार के पन्ने पर एक नौजवान की तस्वीर छपती है जो सैनिक नहीं है। वो जीवन में कुछ करना चाहता है, इसलिए डनकिर्क की तरफ जाने वाले यॉट में सवार हो जाता है। उस यॉट पर मारपीट के दौरान चोट लगने से मौत हो जाती है। उसका साथी अख़बार में नाम आने की उसकी ख़्वाहिश पूरी कर देता है और अख़बार में छपता है डनकिर्क का हीरो।
जिस जगह पर तीस हज़ार चालीस हज़ार सैनिक मर जाएं,वहां आप किसे नायक मानेंगे। डनकिर्क का हीरो वो आपरेशन है जिसने तीन लाख सैनिकों को वहाँ से निकाला। फिल्म आपरेशन के नायकत्व की बात नहीं करती, मरने वालों की बेबसी उभारती है। अंतिम रूप से बहादुर सैनिक नहीं होता है। युद्ध रचने वाला नेता होता है। फिल्म में कोई भी सैनिक मरते वक्त ब्रिटेन के लिए नहीं चीख रहा है। नारे नहीं लगा रहा है। वो बस उस घर तक ज़िंदा पहुंच जाना चाहता है,जहां से वो आया है। घर उसका देश है। देश उसका घर नहीं है। तभी एक दृश्य में जब किसी तरह बचे हुए सैनिक लौट रहे होते हैं तो नागरिकों का समूह राष्ट्र सेवा समझ कर उन्हें सलामी देता है और गरम चाय बढ़ाता है तो एक सैनिक कहता है किस लिए सलामी। हमने कोई बहादुरी नहीं की। हम बस बचने की कोशिश करते रहे। रेलगाड़ी में बैठे सैनिक जब अपने देश में प्रवेश करते हैं तो नागरिकों का समूह खाने की चीज़ें और बीयर की बोतलें दे रहा होता है। सैनिक अपने देश में होते हुए भी अपने देश के नहीं लग रहे होते हैं। वो ज़िंदगी और मौत के बीच के किसी देश से लौट कर आए लगते हैं। उनके चेहरे पर भी मरने वाले साथियों की यादें नहीं हैं।
डनकिर्क युदध की व्यर्थता पर भाषण नहीं है। फिल्म देखते हुए लगता है कि युद्ध से नेता और राष्ट्र को भले ही बहुत कुछ मिलता हो, सैनिक को कुछ नहीं मिलता है। वो जब मरता है या मारा जाता है तब वो लम्हा उसका अकेले का होता है। उस एक लम्हे में राष्ट्र नहीं होता। उसका घर होता है। वो होता है। जिंदा रहना हम सब की ख़्वाहिश है। युद्ध उस ख़्वाहिश के साथ धोखा है। सैनिक ज़िंदगी चाहता है। उसे मौत और ज़िंदगी में एक चुनने को कहा जाए तो ज़िंदगी चुनेगा। जब भी ब्रिटेन का बेड़ा आता है,हज़ारों सैनिक इस उम्मीद में सवार होते हैं कि अब घर पहुंच जाएंगे। फिर बम गिरता है और फिर जान बचाने के लिए समंदर में कूदते हैं। फिल्म में बार बार यही होता जाता है। एक जहाज़ उम्मीद है, एक जहाज़ मौत।
यह फिल्म सैनिक के सम्मान और राष्ट्रवाद की कोई बहस नहीं जीतती है। यह आपको वहां ले जाती है जहां सैनिक मारे जाते हैं। युद्ध इंसानों को मारने का कसाई घर होता है। यह कहीं भी बन सकता है। फिल्म समीक्षकों के बीच इतिहास के सभी पहलुओं के न होने को लेकर बहस हो रही है। भारतीय सैनिक भी ब्रिटिश सेना के हिस्से के रूप में वहां थे। भारतीय सैनिकों के नयन नक्श का कोई नहीं दिखता है। इसकी आलोचना है। वो दिख भी जाते तो भी उसी तरह मरते हुए नज़र आते जिस तरह ब्रिटिश सैनिक मर रहे थे। यह फिल्म आपके लिए इतिहास की किताब नहीं ले आई है, एक ऐसे समय में जब फिर से युद्ध के ज़रिये नेता ख़ुद को राष्ट्र दृष्टा टाइप उद्धृत किये जाने वाले वाक्य बोलने के लिए बेचैन हैं, आपसे ये फिल्म बस इतना कहती है कि डनकिर्क देख लो। नेता तो तब भी महान थे, अब भी हैं और कल भी होंगे। जो सैनिक मारा गया है या मारा जाता है, उसके लिए न राष्ट्र न ईश्वर महानता के कोई क्षण गढ़ता है। नायकत्व बहुत बाद की चीज़ है।
इस फिल्म को देखने के बाद यू ट्यूब एक गाना ज़रूर सुनियेगा। फिल्म का नाम है उसने कहा था। गाने के बोल मख़दूम मोहीउद्दीन ने लिखे हैं। मन्ना डे ने गाया है। मुझे बार बार डनकिर्क देखते हुए, इस गाने की याद आ रही थी। बल्कि यही गाना बज रहा था। फिर गांधी की याद आई, फिर उनकी हत्या। हिंसा ने करोड़ों लोगों को मारने के अलावा इतिहास के लिए क्या हासिल किया है। चौराहों पर लगने वाली महान नेताओं की मूर्तियों के अलावा। फिलहाल गाने के बोल लिख दे रहा हूं…
जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहां जा रहा है
इश्क़ है हासिल ए ज़िंदगानी, ख़ूब से तर पर है उसकी कहानी
आए मासूम बचपन की यादें, आए दो रोज़ की नौजवानी
जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहां जा रहा है।
कैसे सहमे हुए हैं नज़ारे कैसे डर डर कर चलते हैं सारे
क्या जवानी का ख़ू हो रहा है, सुर्ख़ है आंचलों के किनारे
जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहां जा रहा है