गुजरात में दलितों की पिटाई पर भड़के रवीश, पूछा- सरकार नौकरी नहीं दे रही, तो ऐसे क्यों निकाल रहे गुस्सा?

मूँछ रखने के कारण क्या किसी को पीटा जा सकता है? गरबा देखने के लिए क्या किसी को इतना मारा जा सकता है कि वह मर जाए? क्या इसके पीछे किसी जाति के प्रति घिन है? फिर वो कौन सी चीज़ है जिसके कारण बारात निकलने या गरबा देखने पर किसी दलित की हत्या कर दी जाती है? झगड़े और हत्या के कई कारण हो सकते हैं लेकिन क्या यह हमारे समाज की क्रूरतम सच्चाई आज भी मौजूद नहीं है? अगर हम समाज के भीतर बैठे इस घिन के बारे में सोच लेंगे तो क्या बहुत बुरा हो जाएगा?

समाज में काफी हद तक अश्पृश्यता तो समाप्त हुई है लेकिन उसके बचे रहने का प्रतिशत भी कम नहीं है। अश्पृश्यता का यह नया रूप है घिन। ये घिन ही है जो किसी को किसी की निगाह में कमतर बनाती है और उसके प्रति समाज का व्यवहार बदल देती है।

क्या इस हिंसा में शामिल और उसके साथ खड़े लोगों को बेहतर होने में समस्या है? वो क्यों चुप रहते हैं? क्या गुजरात में किसी चीज़ की कमी रह गई है,जहाँ मूँछ के कारण लड़के पीटे जा रहे हैं? सरकार ने नौकरियाँ नहीं दीं तो ख़ाली बैठकर उसका गुस्सा दलित युवकों पर क्यों निकाल रहे हो भाई। सरकार तो तुम्हें दस बारह हज़ार के ठेके पर काम देने से ज़्यादा क़ाबिल नहीं समझती है और आप हैं कि इसका खुंदक दलितों पर निकाल रहे हैं? आप जान गए होंगे कि यहाँ आप से मतलब कौन है।

गांधीनगर गाँव के अज्ञात युवाओं के मन में क्या उबल होगा जिसके कारण एक 17 साल के दलित युवक को इसलिए चाक़ू मार देते हैं कि उसने मूँछे रखी हैं। इस गाँव में पहले भी दो युवाओं पर उच्च जाति के लोगों ने इसलिए हमला कर दिया क्योंकि उनकी मूँछें थीं। मूँछ रखने पर हमले के आरोप में FIR दर्ज हो रही है। क्या यह सामूहिक शोक और शर्म का विषय नहीं है?

लिंबोदरा गाँव के सरपंच ने बैठक बुलाकर घटना की निंदा की है। कहा है कि यह शर्म की बात है कि ऐसी घटना उनके गाँव में हुई है। इस गाँव के दो लोगों को मूँछ रखने के कारण मारा गया है। बहुत अच्छा किया है। जाँच कर रहे पुलिस अधिकारी ने एक्सप्रेस से कहा है कि घटना स्थल पर मौजूद लोगों में से कोई गवाही देने को नहीं मिल रहा है। इस जातपात का हम क्या करने वाले हैं , कुछ सोचा भी है ? ऐसे ही इसे लेकर सड़ते रहेंगे?

बाकी राज्यों की तरह गुजरात के समाज में भी भयंकर जातिगत तनाव रहा है। श्मशान तक अलग हैं। इसका सामना कोई नेता नहीं करना चाहता है। इसीलिए आज कल सारे ज़ोर ज़ोर से स्लोगन की शैली में बोलने लगते हैं ताकि लोग बुनियादी सवाल न करें। हम हमेशा ऐसे सवालों को टाल जाते हैं और बतकुच्चन करने लगते हैं। जल्दी ही इसके कुछ सैंपल आपको कमेंट में मिल जाएँगे।

लेकिन कभी तो इस घृणा और हिंसा के ख़िलाफ़ घृणा फैलेगी, या फिर इसे जायज़ ठहराने के लिए यही पूछा जाता रहेगा कि जाति क्यों लिखा? इसिलए लिखा कि इन्हें एक ख़ास जाति हो गया के कारण ही मारा गया । मारने वाला सामाजिक रूप से आज भी ख़ुद को दादा समझता है। क्या हम इस पर भी गर्व करेंगे?

दुखद है कि भारत का समाज हर समय और हर जगह इस हिंसक सोच का बार बार प्रदर्शन कर रहा है। ऐसा लगता है कि एक तबके को बारूद में बदलने की फैक्ट्री खुली है। जिससे धर्म के नाम पर हिंसा फैलाने के लिए गोले बन रहे हैं तो दूसरी तरफ जाति के नाम पर कमज़ोर के ख़िलाफ़ हिंसा फैलाने के लिए गोले बन रहे हैं। दो मिनट के लिए ठहर कर सोचिए कि हम कर क्या रहे हैं। क्या ये भी शर्मनाक नहीं है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि ऊना की क्रांतिकारी घटना के बाद गुजरात के गाँवों में दलितों से बदला लिया जा रहा है? सामाजिक अधिकार के लिए लड़ने वाले संगठनों ने बुधवार को गुजरात विधानसभा के बाहर प्रदर्शन का एलान किया है।

कांचा इलैया को मारने की धमकी दी जा रही है। कई दिनों से आर्थिक ख़बरों में उलझे होने के कारण इस बहस को देख नहीं सका। आहत के पास आहत होने के जायज़ तर्क हो सकते हैं मगर उसके नाम पर मारने , धमकी देने का लाइसेंस कौन देता है? कभी तो हम भीतर की हिंसा और नफ़रतों से आज़ाद होने का प्रयास करेंगे या नहीं करेंगे ?

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