आरएसएस पर एक्सपर्ट के तौर पर मशहूर जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और RSS: A View to the Inside नाम की किताब लिखने वाले एंडरसन पीएम मोदी और सरसंघचालक के बीच के रिश्तों के बारे में कई अहम बातें बता रहे हैं।
प्रोफेसर वॉल्टर के. एंडरसन ने क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया से खास बातचीत में बताया कि पीएम मोदी और भागवत कैसे कई सारी असहमति होते हुए भी साथ हैं।
एंडरसन के अनुसार मोहन भागवत के पास एक डिप्लोमेटिक नजरिया है जो उन्हें एक दूसरे की स्थिति को समझने में मदद करता है। भागवत समझते हैं कि पॉलिसी बनाने के फैसले प्रधानमंत्री और पार्टी (भाजपा) लेती है।
प्रधानमंत्री को पता है कि एक कैडर को ट्रेनिंग देने में आरएसएस कितना जरूरी है। हर व्यक्ति एक-दूसरे को समझता है। वे एक ही उम्र के हैं।
तीन बार प्रतिबंधित होने के अपने इतिहास के कारण आरएसएस से डर है कि सरकार अपनी गतिविधियों को सीमित करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग कर सकती है और यदि बीजेपी फिर से सत्ता में आती है तो सरकारी नीति के गुप्त छेड़छाड़ या नियंत्रण की संभावना है, एक स्थिति जिसे ‘गंभीर अवस्था’ भी कहा जाता है’।
यदि भाजपा 2019 में जीतती है तो उसे दो बार सत्ता मिल सकती हैं, शायद तीन बार भी तो संभावना है कि भाजपा गहन राज्य का हिस्सा बन जाए। आरएसएस हमेशा इसके लिए संदिग्ध रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सर-संघचालक मोहन भागवत के बीच रिश्ते कैसे हैं, आरएसएस और तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी या अाडवाणी से कितने भी मतभेद थे, पर उनका कहना था कि नहीं, वे बहुत चिंतित थे।
तत्कालीन सरसंघचालक सुदर्शन को आडवाणी के साथ बड़ी समस्याएं थीं और वह बहुत साफ साफ बोलने वाले थे। ऐसा नहीं है कि आरएसएस सरकार की हर बात से सहमत है इसलिए मतभेद नहीं है बल्कि मोहन भागवत काफी डिप्लोमेटिक हैं।
मैं हमेशा कहता हूं कि अगर आप मोदी और भागवत के बीच के संबंध समझते हैं तो आप अगले चुनाव के बारे में नीतिगत दिशा, संभावित रणनीति और कम्युनिकेशन को डीकोड करने में सफल होंगे। क्या यह बराबरी का रिश्ता है? कौन किस पर भारी है?
इस पर उनका कहना है कि यह मौके पर निर्भर करता है। दोनों एक दूसरे की इज्जत करते हैं। दोनों एक ही उम्र के हैं। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं, जमीन और श्रम का मुद्दा इस सरकार के लिए बहुत जरूरी है।
क्योंकि सरकार सोचती है कि भूमि और श्रम कानून के सुधार से ग्रोथ होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। ऐसा नहीं है कि विपक्षी पार्टियां ही सिर्फ इसके खिलाफ थीं। असली वजह ये है कि संघ परिवार के अंदर ही इसका विरोध हो रहा था। आरएसएस का कृषि संगठन भारतीय मजदूर संघ इसके खिलाफ था।
सरकार ने एक संवैधानिक प्रावधान का इस्तेमाल किया जो कहता है कि भूमि और श्रम के कुछ क्षेत्रों में अगर केंद्र सरकार को जरूरत हुई तो वो अपनी जिम्मेदारी राज्यों पर डाल सकते हैं और उन्होंने ऐसा ही किया, कुछ राज्यों ने कानून पारित भी किया लेकिन केंद्रीय स्तर पर उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि संघ परिवार के अंदर बड़ी असहमति थी। आरएसएस की मोनोलिथ के रूप में छवि गलत है वो मोनोलिथ नहीं है।