समराला, पंजाब में जन्मे सआदत हसन मंटो (11 मई, 1912 – 18 जनवरी, 1955) उर्दू के सबसे बड़े कहानीकार माने जाते हैं। वे कश्मीरी थे।
मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। पतंगबाजी का शौक था। उर्दू में कमज़ोर होने के कारण मंटो एंट्रेंस में दो बार फेल हो गये थे। वे एक नामी बैरिस्टर के बेटे थे। अपने अब्बा से उनकी कभी नहीं बनी लेकिन मां को बहुत चाहते थे। मंटो ने कभी एक ड्रामेटिक क्लब खोल कर आग़ा हश्र का एक नाटक पेश करने का इरादा किया था लेकिन उनके गुस्सैल पिता ने सब सामान तोड़ ताड़ दिया।
बेशक मंटो ने अपने पिता के देहांत पर अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-लाल कमरा।
मंटो ने विदेशी कहानाकारों को खूब पढ़ा था। उन्होंने अनुवाद भी किये थे। 22 साल की उम्र में वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िल हुए। मंटो अपने वक़्त से आगे के रचनाकार थे। मंटो की पहली कहानी तमाशा जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर आयी थी। पहली किताब आतिशपारे 1936 में आयी। उन्होंने 17 महीने तक दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में भी काम किया और उन दिनों खूब लिखा। मंटो ने फ़िल्म और रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, संपादन और पत्रकारिता भी की। उन्होंने मिर्जा ग़ालिब फिल्म की पटकथा लिखी थी जिसे 1954 में हिंदी फिल्म का पहला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
मंटो ने सफ़िया से शादी की थी। उनकी तीन बेटियां थीं।
वे 1942 में लाहौर से बंबई गये और वहां जनवरी, 1948 तक रहे। 1948 में वे पाकिस्तान चले गए। वे बंबई से नहीं जाना चाहते थे लेकिन उनकी कंपनी बॉम्बे टाकीज के मालिकों को अल्टीमेटम मिला – या तो अपने सब मुस्लिम कर्मचारियों को बर्खास्त कर दें या फिर अपनी सारी जायदाद को अपनी आँखों के सामने बर्बाद होते देखने के लिए तैयार हो जाएं। मंटो के लिए ये बहुत बड़ा सदमा था। पाकिस्तान वे बेहतरी के लिए गये थे लेकिन वहां मनचाही ज़िंदगी न पा सके। बाद में इशरत आपा को लिखे खतों में उन्होंने भारत वापिस आने की मंशा जाहिर की थी।
मंटो ने अपने 19 बरस के साहित्यिक जीवन में 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख और एक उपन्यास लिखे। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। दो एक बार ऐसा भी दौर आया कि उन्होंने रोज़ एक कहानी लिखी। 1954 में उन्होंने 110 कहानियां लिखीं। घर चलाने और शराब की जरूरत उनसे ये सब कराती थी। वे न लेखन छोड़ सकते थे न शराब। कई बार नकद पैसों के लिए अख़बार के दफ्तर में बैठ कर कागज पैन मांग कर कहानियां लिखीं।
उनकी बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ कहानियों पर लंबे मुक़दमे चले। दो भारत में और तीन पाकिस्तान में। वे कहते थे कि मेरी कहानियां अश्लील नहीं हैं, वह समाज ही अश्लील है जहां से मैं कहानियां उठाता हूं। वे लेखक तो संवेदना पर चोट पहुंचने पर ही कलम उठाता है। बेशक इन मुकदमों में बरी किये जाते रहे लेकिन इन मुकदमों ने उन्हें आर्थिक, मानसिक और शारीरिक तौर पर बुरी तरह से तोड़ दिया था। यहां तक कि उन्हें दो बार पागलखाने में भी भर्ती होना पड़ा। ऊपर से देखने पर मंटो की कहानियां दंगों, साम्प्रदायिकता और वेश्याओं पर लिखी मामूली कहानियाँ लगती हैं लेकिन ये कहानियाँ पाठक को भीतर तक हिला देने की ताकत रखती हैं। वे ताजिंदगी खुद से, अपने हालात से और आसपास के नकली माहौल से जूझते रहे।
मंटो को ऐसे भी दिन देखने पड़े जब शराब और दूसरी ज़रूरतों के लिए उन्हें दोस्तों से पैसे उधार मांगने पड़ते थे। इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी।
पाकिस्तान में पूरे अरसे फकीरी और बदहाली में रहने वाले मंटो को 2012 में मरणोपरांत निशान ए इम्तियाज से नवाजा गया। 2005 में वहां उनकी याद में डाक टिकट भी निकाला गया था। फ्रॉड मंटो का प्रिय शब्द था जिसके अर्थ इस्तेमाल के साथ बदलते रहते थे।
मंटो ने अपनी कब्र के लिए ये इबादत तैयार की थी – यहां सआदत हसन मंटो लेटा हुआ है और उसके साथ कहानी लेखन की कला और रहस्य भी दफन हो रहे हैं। टनों मिट्टी के नीचे दबा वह सोच रहा है कि क्या वह खुदा से बड़ा कहानी लेखक नहीं है। अफसोस उनकी कब्र पर लगाये गये पत्थर पर ये शब्द नहीं हैं।