शाह फैसल ने कहा, मुझे सिविल सर्विस छोड़ते हुए खुशी नहीं हो रही है

कश्मीर की समस्याओं के उचित समाधान ने होने से नाराज शाह फैसल ने हाल ही में भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया था। शाह फैसल ऐसे कश्मीरी नौजवान हैं, जो जम्मू-कश्मीर सूबे से पहली बार 2009 में सिविल सेवा टॉपर बने थे। वह केंद्र और राज्य सरकारों के रवैये से खासे नाराज हैं और अब राजनीति के जरिए आगे का रास्ता तलाश रहे हैं। शाह की भावी योजनाओं को लेकर विस्तृत बातचीत के कुछ अंश –

जिस सविल सेवा में आने के सपने करोड़ों भारतीय नौजवान दिन-रात देखते हैं, उसे छोड़ने का फैसला आपने क्यों किया?

देखिए, हमारे सूबे में राजनीति पूरी तरह से फेल हो गई है। पिछले 30 साल से जो हिंसा चल रही थी, वह बढ़ती गई। नौजवान मुख्यधारा से दूर हो चुके हैं। दिल्ली से कुछ समाधान नहीं हो रहा है। कश्मीर के लोगों में बहुत ज्यादा गुस्सा है। यह एक बड़ी राजनीतिक चुनौती है। इसके अलावा, देश के दूसरे हिस्सों में भी असहिष्णुता बढ़ी है। मैंने देखा है कि काफी समय से कश्मीरी पंडित घर आना चाहते हैं। उनसे वादे किए गए, लेकिन वे पूरे नहीं हुए। मैं इन पर बात करना चाहता था, लेकिन सरकारी सेवा में रहते हुए मेरे लिए इन मुद्दों पर बात करना संभव नहीं था। एक-दो साल से सोच रहा था कि इस चुनौती का जवाब देना चाहिए। यही सोचकर यह कदम उठाया। सिविल सेवा से मेरा इस्तीफा केंद्र सरकार के लिए एक पैगाम है। मैंने उसे याद दिलाया है कि जम्मू-कश्मीर के आवाम के लिए आपकी कुछ जिम्मेदारियां हैं, जिन्हें आप पूरा नहीं कर रहे।

जब आपने सिविल सेवा परीक्षा में टॉप किया था, तब कश्मीर घाटी में आपके पोस्टर लगे थे, ताकि नौजवान आपसे प्रेरणा लें, लेकिन अब इस सेवा को छोड़ना नौजवानों को हतोत्साहित नहीं करेगा?

मैंने इसलिए सेवा नहीं छोड़ी कि इसमें कोई समस्या थी या मैं इस नौकरी में कुछ नहीं कर पाया। सिविल सेवा तो मेरे लिए सबसे बड़ी चीज थी। मगर जिंदगी में कुछ ऐसे मौके आते हैं, जब आपको भी कुछ कुर्बानियां देनी पड़ती हैं। कश्मीर में लोग अपनी जान दे रहे हैं। अपनी जमीनें दे रहे हैं। अपने सपने तोड़ रहे हैं। मैंने भी नौकरी छोड़कर कुर्बानी दी है। जहां तक नौजवानों का सवाल है, तो जो युवा सिविल सेवा की तैयारी कर रहे हैं, उनसे मैंने हमेशा यही कहा है कि ऐसी संभावनाएं दुनिया की किसी सेवा में नहीं हैं। मैंने तो यह भी कहा है कि मुझे इस सेवा को छोड़ते हुए खुशी नहीं हो रही है।

क्या आपको लगता था कि एक नौकरशाह के रूप में आप कश्मीर की समस्याओं को हल नहीं कर सकते?

कर सकते हैं, जम्मू-कश्मीर की बहुत सारी समस्याएं हैं, जो नौकरशाह दूर कर सकते हैं। वह भी महत्वपूर्ण है। लेकिन मेरे सामने ऐसी चुनौती थी, जो कहीं ज्यादा जरूरी है। जो अस्तित्व से जुड़ी है। आज पढ़े-लिखे नौजवान बंदूक उठाकर मर रहे हैं और इसका समाधान नौकरशाही के पास नहीं है। यह एक सियासी मसला है। जब तक हम लोगों की आकांक्षाओं की बात नहीं करेंगे, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए मैं कह रहा हूं कि राजनीतिक हस्तक्षेप जरूरी है।

अब आपका अगला कदम क्या होगा?

मैं सोच रहा हूं कि चुनाव लड़ूं। मैं कश्मीर के अवाम से बात करने जा रहा हूं। हालांकि यहां के अवाम, खासकर नौजवानों को चुनावी राजनीति से कोई मतलब नहीं है, क्योंकि उन्हें यही लगता है कि चुनावी राजनीति के नाम पर उन्हें बार-बार ठगा गया है। मैं घाटी के नौजवानों से कहता हूं कि चुनावी राजनीति में आना चाहिए। हम चुनाव लड़कर भी आपकी बात को नहीं झुठलाएंगे।

जो कश्मीरी नौजवान देश और फौज के खिलाफ हथियार उठा रहे हैं, उनसे भी आप राजनीति में आने का अनुरोध करेंगे?

देखिए, हर कोई अपना रास्ता खुद चुनता है। उन्होंने अपना एक रास्ता चुना है। यदि कोई इंसान अपनी जान पर खेलकर कोई रास्ता चुने, तो आपको यह समझने की जरूरत कि उसकी मानसिकता क्या रही होगी? एक इंसान, जो अपनी जान से खेल रहा है, उसे मैं क्या बोलूं? मुझे बहुत दुख होता है, जब ये नौजवान मुठभेड़ में मारे जाते हैं, या जब कोई सैनिक शहीद होता है।

कश्मीर समस्या को आप आखिर किस रूप में देखते हैं?

यह सिर्फ एक राजनीतिक मसला है। कश्मीरियों के जेहन में यह बात 1947 से है। यह कोई कल की बात नहीं है। यह 2008 की बात भी नहीं है। जब से देश आजाद हुआ है, तभी से भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर के बीच बातचीत हो रही है। केंद्र सरकार और कश्मीर के बीच एक अनोखा रिश्ता है, इस रिश्ते में खटास कैसे आई और अब वह कैसे दूर हो सकती है, इसे देखना होगा।

आप कश्मीर की स्वायत्तता के पक्षधर हैं?

मैं चाहता हूं कि कश्मीरियों की बात सुनी जाए। अभी हम यह नहीं कहते हैं कि समाधान क्या है? हम तो यह कह रहे हैं कि सामाधान तलाशने से पहले कश्मीरियों से बातचीत हो। समाधान बाद में देखेंगे। खासकर जो कश्मीरी राजनीतिक रूप से आपसे सहमत नहीं, उनकी बात सुनी जानी चाहिए। यहां के कई कानून ऐसे हैं, जिनको सरल बनाए जाने की जरूरत है। हुर्रियत से बात की जानी चाहिए। सेना की उपस्थिति ज्यादा है। नागरिकों और सेना के बीच टकराव को कम किया जाना चाहिए। इसी से समाधान निकलेगा।

कश्मीरी नौजवान बंदूक उठाते हैं। मुठभेड़ में मारे जाते हैं, फिर नई भर्तियां होती हैं, फिर मारे जाते हैं, यह सिलसिला कब तक चलेगा?

यदि आप आतंकियों को मारकर आतंकवाद खत्म कर सकते, तो यह कब का खत्म हो चुका होता। इस आतंकवाद को आपको दूसरे संदर्भ में देखना होगा। लोगों की भावनाओं को समझने और उसे एड्रेस करने की जरूरत है। आज यदि वहां कोई विश्वविद्यालय में भाषण देता है, तो आप कहते हैं कि यह देश की एकता और अखंडता के खिलाफ है। ऐसे में, वहां घुटन का माहौल पैदा होता है। इसी माहौल में पीएचडी स्कॉलर भी बंदूक उठाने पर मजबूर हो जाता है। मैं तो यही कहता हूं कि विचारों को प्रकट करने दीजिए।

केंद्र सरकार का कहना है कि जम्मू-कश्मीर को पहले ही बहुत स्वायत्तता दी जा चुकी है?

इधर, कुछ वर्षों से, जो स्वायत्तता या विशेष दर्जा कश्मीर को मिला हुआ है, उसे भी खत्म करने की कोशिशें हो रही हैं। अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए को खत्म करने की कोशिशें हो रही हैं। जो पहले से है, उसे भी वापस लिया जा रहा है। लोगों को उकसाया जा रहा है कि हम संविधान में प्रदत्त सुविधाओं को आपसे वापस ले लेंगे। हम आपके विशेष दर्जे के खिलाफ हैं। मैं कहता हूं कि अपने लोगों के खिलाफ जंग लड़कर नहीं जीती जा सकती।

कश्मीर में सेना और सुरक्षा बलों की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?

सेना और सुरक्षा बल सियासी निजाम के अंदर काम करते हैं। सेना अपनी तरफ से कुछ नहीं करती। वह सरकार का प्रतिनिधित्व करती है। जवान शहीद होते हैं। इसका दुख उनका परिवार जानता है। राजनीतिक लोग जवानों और सेना को आगे कर देते हैं। मैं एक उदाहरण देता हूं। कर्नल राय मेरे दोस्त थे। वह यहीं तैनात थे। जब वह शहीद हुए, तो मुझे बहुत दुख हुआ। उनके परिवार और बच्चे को देखकर मुझे रोना आता है। मुझे एहसास हुआ कि वह यहां कश्मीरियों को मारने नहीं आए थे। वह तो अपनी भूमिका निभा रहे थे। वह चाहते थे कि इस समस्या का समाधान हो। राजनेता भी आगे आएं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह क्रम जारी है। दरअसल, जब राजनीतिक लोग फेल हो जाते हैं, तो सेना को आगे आना पड़ता है और जवानों को अपनी शहादत देनी पड़ती है।

एक धारणा यह भी है कि कश्मीर समस्या कुछ लोगों के लिए वरदान बन गई है, वे इसका समाधान चाहते ही नहीं?

हां, आप दुरुस्त कह रहे हैं। यह होता है। संघर्ष क्षेत्र में चीजें रूटीन बन जाती हैं। मरना-मारना एक रोजाना का काम हो जाता है। आज दस मारे गए, तो कल पांच। हर युद्ध क्षेत्र की अपनी एक अर्थव्यवस्था विकसित हो जाती है। बंदूक के साथ पकड़ने पर इनाम मिलता है। आतंकी मारे जाते हैं, तब भी इनाम मिलता है। मुखबिरों को सूचना देने के लिए पैसा मिलता है। बंदूकें एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए भी पैसे मिलते हैं। इस प्रकार, युद्ध क्षेत्र की एक अर्थव्यवस्था जब विकसित हो जाती है, तो उसे राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना खत्म करना संभव नहीं होता है।

कश्मीर समस्या के समाधान के बारे में आप क्या सोचते हैं?

बहुत सारी मांगें की जाती हैं। बहुत सारे समाधान के विजन भी दिए जाते हैं। कुछ लोग स्वायत्तता की बात करते हैं, कुछ स्वशासन की। कोई जनमत संग्रह की मांग करता है, तो कोई बाहरी हस्तक्षेप से समाधान की। और भी कई मांगें होंगी। लेकिन मैं कहता हूं कि जब तक आप लोगों के साथ बैठेंगे नहीं, तब तक बात आगे नहीं बढ़ेगी। पहले आप समस्या को स्वीकार करें। बीमारी की पहचान करें। उसके बाद समाधान पर बात होगी।

आपने हिंदुत्ववादी ताकतों के खिलाफ अपनी नाराजगी प्रकट की है, आपका इशारा किसकी तरफ है?

यह मसला नोएडा के करीब हुई एक मॉब लिंचिग का लेकर था। मैंने एक वीडियो देखा था। इस वीडियो में एक व्यक्ति कह रहा है कि उसने एक मुस्लिम को तब मारा, जब वह पानी मांग रहा था। उसका कहना था कि जैसे तुमने बिना पानी के मेरी गाय को मारा, वैसे ही मैं तुम्हें मारूंगा। वीडियो में वह यह भी कहता है कि जब वह जेल गया, तो उसका स्वागत किया गया। जिस देश को बुद्ध और गांधी की भूमि कहा जाता है, वहां ऐसी मानसिकता कहां से आ गई? यह मानसिकता पहले भारत में नहीं थी। भारत हिंदू-मुस्लिम एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का उदाहरण था। हमने उसे खत्म कर दिया। अब हमारे पास दुनिया को दिखाने के लिए क्या रह गया? एक बात और, मैं हिंदू-और हिंदुत्व में फर्क मानता हूं। मैं शशि थरूर के विचार से सहमत हूं। जिस प्रकार, मुस्लिम और मुस्लिम आतंकवाद में फर्क है। उसी प्रकार, हिंदू और हिंदुत्व में भी फर्क है। हमें इन्हें अलग-अलग ही रखना चाहिए।

गुमराह कश्मीरी नौजवानों को पाकिस्तानी मदद को लेकर आप क्या कहेंगे?

देखिए, कश्मीरियों की अपनी भावनाएं हैं। कभी कहा जाता है कि अमेरिका से संदेश आ रहे हैं, तो कभी कहते हैं कि पाकिस्तान से मदद मिल रही है। ऐसा कहकर असली मुद्दे की अनदेखी की जाती है। हमें चाहिए कि पहले हम अपने लोगों से बात करें, उनका भरोसा जीतें। फिर देखेंगे कि कोई और क्या कर रहा है और उससे कैसे निपटें।

आपके नेशनल कांफ्रेंस में शामिल होने की चर्चा जोरों पर है?

मैंने अभी किसी मौजूदा राजनीतिक दल में शामिल होने का कोई फैसला नहीं किया है।

तो क्या आप अलग पार्टी बनाने जा रहे हैं?

अभी मैं लोगों से मिल रहा हूं, उनसे जैसा फीडबैक मिलेगा, उसी के मुताबिक मैं अपना कदम उठाऊंगा।

जम्मू-कश्मीर का विकास क्या समाधान का रास्ता हो सकता है?

यह एक तरीका है। आप सूबे के विकास के मुद्दों को देखिए। अवाम को अच्छा शासन-प्रशासन दीजिए। लेकिन यह मत कहिए कि इसी से कश्मीर समस्या हल हो जाएगी। इसके साथ ही राजनीतिक हल भी तलाश कीजिए। यदि कोई यह सोचता है कि घाटी के नौजवानों को रोजगार देकर कश्मीर में आतंकवाद खत्म हो जाएगा, तो यह पूरी तरह से सही नहीं। बल्कि उल्टा हो रहा है। रोजगार छोड़कर नौजवान आतंकी बन रहे हैं।

साभार : हिनदुस्तान डॉट कॉम