“तलाक़.. कोई मजाक़ नहीं”

आज मुस्लमान जोड़ा गिला, शिकवा के अंतर्द्वंद का ऐसा शिकार बनता जा रहा है कि उसका माज़ी, हाल व मुस्तक़बिल समाज को ऐब के दलदल में ढकेले जा रहे हैं, जिसका फायदा उठाने के लिए गैर कौम भी वक्त की बहती इस गंगा में हाथ धोने को बेताब हैं, जिन पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को क़लमा-ए-तैय्यब का अर्थ भी पता न हो, जो महिलायें खुली जुल्फ जीन्स शर्ट पहने गैर महरम के सामने शान से बैठती है और जो लोग लीव इन रिलेशनशिप की पैरवी करते हैं वो लोग आज तलाक़ को परिभाषित कर रहे हैं, जिन्हे तलाक़ का “त” भी पता न होगा। उनके इस षडयंत्र को समझने के लिए हमें पुरी तरह तलाक़ और उसके मसाएल को समझना होगा।

इस्लाम में शादी तोड़ने के चार तरीके हैं. तलाक, तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह….. शादी तोड़ने के लिए तलाक का अधिकार मर्दों को है तो इसी तरह शादी को खत्म करने के लिए तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह का अधिकार औरतों को है.आइये एक एक कर समझने की कोशिश करते हैं.

#तलाक़

तलाक़ का अधिकार मर्द को है, जिसकी तीन स्टेज हैं. तलाक-ए-रजई, तलाक-ए-बाइन और तलाक-ए-मुगल्लज़ा.

#तलाक_ए_रजई

ये तलाक का पहला स्टेज है. अगर कोई मर्द अपनी बीवी को छोड़ना चाहता है तो पहले वो एक तलाक दे. ये तलाक भी माहवारी के समय न दे, बल्कि महिला अगर माहवारी में है तो उसके खत्म होने का इंतजार करे. पहला तलाक देने के बाद अगले एक महीना तक दोनों सोचते रहें. और इस दौरान राय बदल गई तो मर्द अपने तलाक को वापस लेकर अपनी बीवी के साथ रह सकता है और अगर तलाक वापस नहीं लिया तो दूसरे महीने पति को दूसरा तलाक देना होगा. दूसरे महीने भी मर्द को ये अख्तियार है कि वो तलाक को वापस ले सकता है.

#तलाक_ए_बाइन

तलाक की दूसरा स्टेज है, मान लीजिये शुरुआती दो महीनों में मर्द ने तलाक वापस नहीं लिया और तीसरा महीना शुरू हो गया तो समझ लीजिये कि तलाक अब अस्तित्व में है, जिसे तलाक-ए-बाइन कहा जाता है.लेकिन, इस तलाक के बाद भी पति-पत्नी साथ आ सकते हैं. इसके लिए पति के चाहने के बावजूद अब पत्नी का राजी होना जरूरी है. अगर दोनों राजी होंगे तो दोबारा निकाह होगा और फिर शौहर-बीवी बने रह सकते हैं.

#तलाक_ए_मुगल्लज़ा

तलाक की आखिरी अवस्था, जहां तीसरे महीने में अगर मर्द ने ये कहा कि मैं तुमको तीसरी बार तलाक देता हूं, ऐसा कहने का अर्थ होगा कि तलाक ने मैच्युरिटी हासिल की. इसे तलाक-ए-मुगल्लज़ा कहते हैं. इस अवस्था के बाद मियाँ बीवी दोनों के बीच निकाह नहीं हो सकता है.

#तफवीज़_ए_तलाक़

मियां-बीवी के अलग होने का एक और तरीका है. इसके के तहत शादी तोड़ने का अधिकार औरत को है. इसमें मर्द तलाक देने का अपना अधिकार बीवी के सुपुर्द कर देता है. ये तभी मुमकिन है जब मर्द ने औरत को ये अधिकार दिए हों या मर्द कभी भी ये हक औरत को दे सकता है यानी निकाह के वक़्त या निकाह के बाद इस्लाम में शादी एक कॉन्ट्रैक्ट है ऐसे में निकाह के वक़्त कॉन्ट्रैक्ट पेपर में भी इस अधिकार को दर्ज किया जा सकता है.

#ख़ुलअ

शादी तोड़ने का महिलाओं को एक और अधिकार. अगर औरत को लगता है कि वो शादीशुदा जिंदगी की जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर सकती है या मर्द के साथ उसका निबाह नहीं हो सकता है तो वो अलग होने का फैसला कर सकती है. इसके लिए औरत को महर (निकाह के वक़्त शौहर की तरफ से दी गई रक़म) वापस देनी होगी. और उसके बदले मर्द उसे तलाक दे देगा. लेकिन, यहां भी एक अड़चन है अगर मर्द राजी नहीं हुआ तो खुलअ नहीं हो पाएगा. अगर खुलअ की मदद से औरत शादी तोड़ने में नाकाम रह जाती है तो फ़स्ख़-ए-निकाह का रास्ता अख्तियार कर सकती है.

#फ़स्ख़_ए_निकाह

इसके लिए औरत को इस्लामी अदालत या मुस्लिम काज़ी की मदद लेनी होगी. इस तरीके में औरत को काजी के सामने निकाह तोड़ने की मुनासिब वजहें साबित करनी होगी. जैसे मर्द नामर्द है, खाना खर्चा नहीं देता, बुरा बर्ताव करता है, शौहर लापता है, पागल हो गया है आदि… काज़ी मामले की जांच पड़ताल करेगा. अगर काज़ी को लगता है कि वजहें सही हैं तो वो खुद ही औरत का निकाह खत्म कर देगा.

इस्लामी समाज में तलाक देने के तीन तरीके चलन में हैं. तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-बिद्अत. जहां तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन यानी तलाक देने के सही तरीके पर शिया-सुन्नी सभी को इत्तेफाक है. लेकिन, एक साथ तलाक, तलाक, तलाक का मामला तलाक-ए-बिद्अत की पैदावार है. मुसलमानों के बीच तलाक-ए-बिद्अत का ये झगड़ा 1400 साल पुराना है, जबकि भारत में मुस्लिम पर्सनल के झगड़े की नींव 1765 में पड़ी.

असल में मजहबी फिरकों में भिन्नता तलाक-ए-बिद्अत से आरम्भ होती है. तलाक-ए-बिद्अत ये है कि अगर कोई मर्द तलाक के सही तरीके की नाफरमानी करते हुए भी एक ही बार में तलाक, तलाक , तलाक कह देता है तो तीन तलाक मान लिया जाएगा, यानि तलाक-ए-मुगल्लज़ा हो गई. अब पति-पत्नी साथ नहीं रह सकते. दोबारा शादी नहीं हो सकती, समझौता नहीं हो सकता. तलाक वापस नहीं लिया जा सकता… चाहे मर्द ने गुस्से में ही तीन तलाक क्यों नहीं दिया हो.
दुनिया में सुन्नी मुसलमानों के चार विकार धाराएं हैं. और इन चारों विचार धाराओं के मानने वाले लोग तलाक-ए-बिद्अत पर अमल करती हैं.
भारत इन चारों में सबसे बड़ी विचार धारा हनफी का केंद्र है.
यहां मुसलमानों की करीब 90 फीसदी आबादी सुन्नी है और वो चाहें सूफी हों या देवबंदी या बरेलवी.. ये सभी हनफी विचार धारा को मानते हैं, यानि तीन तलाक को मानते हैं.

अब सवाल ये उठता है कि तीन तलाक का मामला आखिर मुसलमानों की दुखती नब्ज़ क्यों है ?

जैसा कि शरुआत में बयां किया जा चूका है कि इस्लाम में शादी तोड़ने के चार तरीके हैं. तलाक, तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह. शादी तोड़ने के लिए तलाक का अधिकार मर्दों को है तो इसी तरह शादी को खत्म करने के लिए तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह का अधिकार औरतों को है. लेकिन सारा झगड़ा तलाक….. तलाक….. तलाक…… को लेकर है, यानी तलाक-ए-बिद्अत., सीधे शब्दों में ये कहें कि एक ही बार में तीन तलाक दे देना सही नहीं है और अगर कोई ऐसा करता है तो वो गुनाहगार है. कुछ अपवाद को छोड़कर सभी सुन्नी संप्रदायों में तीन तलाक की मान्यता है.
पैगम्बर मोहम्मद स. और हज़रत अबुबक्र व हज़रत उमर के ज़माने में भी कई एैसी मिसालें मिलती हैं जिनसे पता चलता है कि तीन तलाक़ तीन ही हैं, और सहाबा के अमल से भी साबित होता है कि तीन तलाक़ तीन ही होती हैं, लेकिन एक बड़ा तबक़ा इसका विरोध करता है, और ये बहस आज तक जारी है. लेकिन मुद्दे की बात ये है कि क्या तीन तलाक पर पाबंदी शरीअत से छेड़छाड़ होगी ?

एक बात याद रहे कि इस्लामी शरीअत (कानून) कुरआन और हदीस (पैगंबर मोहम्मद की कहीं बातें और किए गए काम) ही है. कुरआन और हदीस से छेड़छाड़ नहीं हो सकती,
हां हालात के साथ साथ शरीयत को ऊसूलों को बाक़ी रखते हुये फुरूअी मसलों में तब्दीली हो सकती है.
और बीते 1450 साल के इस्लामी इतिहास में इसकी भरपूर मिसालें भरी पड़ी हैं.
समझने की बात ये है कि कुरआन में सिर्फ 83 जगहों पर कानून की बातें कही गई हैं. यानि शरीअत रफ्ता-रफ्ता बना है और इसके बनाने में कुरआन, हदीस के साथ-साथ इंसानी अक्ल को भी शामिल किया गया है. इस्लाम में इंसान को ग़लती का पुतला कहा गया है यानी सीधी बात ये है कि जब शरीअत बनाने में इंसानी अक्ल लगाया गया है तो इसमें ग़लती से इनकार नहीं किया जा सकता है. इसका मतलब हुआ कि शरीअत का रिव्यू किया जा सकता है.
और सच्चाई ये है कि लगातार शरीअत का रिव्यू किया जाता रहा है और मौके-मौके पर इसमें तब्दीली भी की जाती रही है.
भारत में भी शरीअत (मुस्लिम पर्सनल लॉ) में बदलाव किए गए हैं और वो भी खुद मुसलमानों ने आगे बढ़कर ऐसा किया. याद रहे कि भारत में अंग्रेजी दौर में ही मुस्लिम पर्सनल लॉ के कई कानून पास किए गए और खुद मुसलमानों ने इसमें बदलाव के सुझाव दिए. ये बात 1945 की है. मुद्दा था कितने सालों तक पति के ग़ायब रहने पर उसे लापता माना जाए. पहले के कानून में ये मुद्दत 90 साल थी, जिसे मुसलमानों ने बदलवाकर चार साल कर दिया.

तीन तलाक पर बदलाव में दिक्कत क्या है ?

मोटे तौर इस दिक्कत को दो हिस्सों में बांटकर समझा जा सकता है. बात की शुरुआत पहली वजह से ही करते हैं. भारतीय संसद, नौकरशाही, अदालतें और मीडिया जितनी ज़ोर से चिल्ला लें, डंका पीट-पीट कर कहें… देश में सभी लोगों की तरक्की की जितनी भी गौरवगाथा की जाए या मुसलमानों को उनकी बदहाली के लिए उन्हें जितनी तरह से कोसा जाये, लेकिन वो उस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की के लिए देश के चारों स्तंभों को जो काम करने चाहिए, उन्हों ने किये नहीं. सरकार की बनाई खुद की रिपोर्टें इसकी कमी बताती हैं. अभी उसपर विस्तार से जानने का समय नहीं है. इसका मतलब ये है कि मुसलमानों का बड़ा तबका सरकार की हर अच्छी और बुरी कोशिश को शक की निगाह से देखता है.
और उसे लगता कि सरकार धीरे-धीरे उसकी शिनाख्त मिटाकर उसे हाशिए पर डाल देना चाहती है, या फिर सत्ता की उस सियासत पर भी मुस्लिम समुदाय असुरक्षित है जहाँ राजनितिक दल इसे आधार बना वोट की झोली भरते हैं.

दूसरी वजह धर्म के अंदर के बवाल हैं, ये वजह काफी दिलचस्प है.
इसमें दो अड़चनें हैं. पहली दिक्कत ये है कि आजादी के बाद से ही उलेमा ये कहते आए हैं कि शरीअत में बदलाव मुमकिन नहीं है और तीन तलाक पूरी तरह से इस्लामी है. इसमें बदलाव को स्वीकार करने का मतलब है भारत में इस्लाम खतरे में है.
यानी आम मुसलमानों को शरीअत या तीन तलाक में किसी बदलाव के लिए तैयार नहीं किया गया और अब अचानक इसे ग़ैर इस्लामी करार देना उनके लिए एक व्यवहारिक मुश्किल है.
दूसरी दिक़्क़त ये है कि अगर आज तलाक़ पर बहस शुरू की जाये तो कल दूसरे पर्सनल लॉ पर भी बहस होगी और मुल्क का मुसलमान इंतिशार का शिकार हो जायेगा.
साथ ही चूंकि तीन तलाक़ तीन की हदीसें और अमल ए सहाबा भी मौजूद हैं, इस लिये इस पर बात करना गोया कि नबी की हदीस और अमल में तब्दीली करना होगा.
इस लिये इस पर बात करने से उलमा खूद भी कतराते हैं और दूसरों को भी रोकते हैं

● “हलाला एक नियम जिसका नाजायज़ इस्तेमाल”

अगर कोई पति अपनी पत्नी को पूरी तलाक (तलाक-ए-मुगल्लज़ा) यानी तीन तलाक दे देता है तो अब पति अपनी उस बीवी से दोबारा शादी नहीं कर सकता. याद रहे कि ये तीन तलाक तीन महीने में दिए जाए या एक ही बार में तीन तलाक दे दिए गए हों. पूरी तलाक का मतलब है कि अब उस महिला और पुरुष के बीच दोबारा शादी नहीं हो सकती… और अब ये पुरुष और महिला किसी दूसरे से शादी करने को आज़ाद हैं. अतः नियम ये है कि महिला ने किसी दूसरे शख्स से शादी की और फिर उससे तलाक हो गया या पति मर गया तो अब महिला फिर से किसी दूसरे शख्स से शादी करने को आज़ाद है. और अब औरत अपने पहले पति से भी शादी कर सकती है. वास्तव में ये नियम एक प्रोगेसिव नियम है और शादी को आसान बनाया गया है.
लेकिन हलाला के लिए शर्त भी रखी गई कि कोई महिला जानबूझकर दूसरे शख्स से शादी करे और फिर तलाक लेकर पहले पति से शादी करना चाहे तो ऐसा नहीं हो सकता. ये नियम कुरआन का है जिसका इनकार करने वाला मुसलमान नहीं हो सकता. लेकिन, यहीं से इस प्रथा का ग़लत इस्तिमाल शुरू होता है,
और ख़ास कर भारतीय मुसलमानों के जाहिल तबक़े ने इतिहास में हलाला जैसे प्रोग्रेसिव नियम के साथ जो भद्दा मज़ाक़ किया. ये वो मुद्दा है जिसके बचाव में अवामी त़ौर पर कोई खुल कर नहीं बोलता,
जो लोग इस भद्दे मज़ाक़ से खुद को अलग करते हैं तो वे सरासर झूठे हैं और फरेबी हैं.
ये बात सही है कि हलाला जैसे प्रोगेसिव नियम से भद्दे मज़ाक़ करने वालों में सीधे तौर पर उलमा हज़रात शामिल नहीं हैं, लेकिन उसे रोकने के लिए उन्हें जो कदम उठाने चाहिए वो उन्होंने मज़बूती से नहीं उठाये.
कारण भी है, जाहिल और कम इल्म लोगों की जमाअतें भी सियासी खेल में माहिर होती हैं, लेकिन यहां उन्होंने खुद अपने मज़हब से खेल किया. खेल ये किया कि अगर पति ने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया और फिर उस औरत से दोबारा शादी करना चाहता है तो दबे पांव हलाला की सलाह दे दी जाती है,
अब तलाकशुदा हो चुकी महिला की शादी किसी दूसरे मर्द से की जाती है. फिर उससे तलाक लिया जाता और फिर उसकी शादी उसके पहले पति से कर दी जाती है. ये सभी काम जानबूझकर होता है, जो हराम है, लेकिन कम जानकार हाफ़िज़ इमाम इस काम को अंजाम देते हैं और पैसा भी कमाते हैं. इसे निकाह-ए-हलाला भी कहते हैं. ये तरीका महिलाओं के साथ ज़ुल्म है. अब जब सुप्रीम कोर्ट इस निकाह-ए-हलाला की भी समीक्षा कर रहा है तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी अपने जवाब में इसे बैन करने की वकालत की है. लेकिन इस प्रथा को सही इस्लामी तरीक़े से पेश करने की ज़रूरत है ताकि मीडिया का प्रोपेगंडा बेनक़ाब हो सके।

शुक्रिया

(ये आर्टिकल अशरफ हुसैन की फेसबुक वाल से लिया गया है)