‘मैं मैला ढोता हूं लेकिन एक मैला ढोने वाले के रूप में मरूंगा नहीं’

अब आपको हम मिलवाने जा रहे हैं सुनील यादव से, जो बृहन्मुंबई महानगर पालिका के ‘डी वार्ड’ में सफ़ाई कर्मचारी हैं । सुनील का परिचय सिर्फ़ इतना ही नहीं हैं वो मिसाल हैं कि इच्छाशक्ति से इंसान अपनी मंज़िल को हासिल कर सकता है।

सुनील टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीआईएसएस), मुंबई से स्टेट पॉलिसी और सफ़ाई कर्मचारी विषय पर एमफ़िल कर चुके हैं और अब उन्होंने टीआईएसएस में ही पीएचडी में भी दाख़िला ले लिया है।

सुनील 2005 से ही महानगर पालिका में सफ़ाई कर्मचारी पद पर काम कर रहे हैं। पिता के अस्वस्थ होने के चलते उनकी जगह उन्हें यह नौकरी मिली थी। 37 साल के सुनील का जन्म मुंबई महालक्ष्मी के धोबी घाट में हुआ। सुनील पत्नी और दो बेटियों के साथ मुंबई के चेम्बूर में रहते हैं। दिन में एक रिसर्च स्कॉलर और रात में महानगर पालिका के सफ़ाई कर्मचारी के रूप में अपने परिवार के साथ ज़िंदगी बिता रहे हैं।

सुनील सफाई कर्मचारियों की समस्या और सफाई का काम करते हुए अपनी पढ़ाई के बारे में बताते हैं, ‘हम सफाई कर्मचारियों की आयु बहुत छोटी होती है, क्योंकि उन्हें पर्याप्त साधन नहीं मिलते, जिससे सफाई के दौरान वे अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर पाएं। मेरे पिताजी भी यही काम करते थे। वे अस्वस्थ हुए तो उनकी जगह मुझे ये नौकरी मिल गई थी। उस वक़्त में 10वीं फेल था।

सुनील कहते हैं कि मैंने नौकरी तो ले ली मगर यह फ़ैसला भी निर्णय लिया कि मुझे आगे पढ़ना है। मैंने यशवंत राव यूनिवर्सिटी से 2005-08 में बीकॉम किया और फिर तिलक महाराष्ट्र पीठ से सामाजिक कार्य में एमए किया. मेरी यह शिक्षा डिस्टेंस से हुई थी, क्योंकि मैं उस वक़्त भी बतौर सफाई कर्मचारी काम करता था।’

टीआईएसएस में पढ़ते हुए अब सुनील पुरुषवादी समाज के खिलाफ़ लड़ना चाहते हैं. वो अपनी पढ़ाई के दौरान यह मानते हैं कि महिलाओं को लेकर समाज गलत नीतियां अपनाता आया है। उन्होंने इसकी शुरुवात अपने घर से की है। वे महिला सफाई कर्मचारियों को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं और उनके लिए काम करना चाहते हैं।

महिलाओं पर सुनील कहते हैं, ‘महिला सफाई कर्मचारी जो हाथों से कूड़ा और मल उठाने का काम करती हैं, मुझे लगता है उनके जीवन में बदलाव आना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। क्योंकि हमारा समाज आज भी महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक मानता है। इस अमानवीय काम में सबसे ज्यादा विधवा महिलाएं हैं। उनका शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर शोषण होता है।

सुनील ने टीआईएसएस से ही ग्लोबलाइजेशन और मज़दूरों के विषय पर एमए किया है। उनका कहना है कि जब वे निर्मला निकेतन से डिप्लोमा कर रहे थे, तब वहीं के कुछ लोगों ने उन्हें टीआईएसएस में दाख़िला लेने को प्रोत्साहित किया था।

सुनील के अनुसार बृहन्मुंबई महानगर पालिका के अफ़सर भी उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे। उनका कहना है कि उनके जाति को लेकर बहुत सारे अफसरों में हीन भावना थी। बतौर महानगर पालिका कर्मचारी के रूप में जब उनके अफसरों को उनके पीएचडी वाली बात पता चली तो उनका बर्ताव बदल चुका था।

अफ़सर हमेशा उसे कहा करते थे कि पढ़ाई से उसे कुछ हासिल नहीं होगा। सुनील अफसरों के इस रवैये और व्यवहार पर कहते हैं, ‘मेरे विभाग के अफसरों को जब ये बात पता चली, तो ये उनके लिए चौंका देने वाली बात थी। बहुत सारे अफ़सर, यहां तक कि आईएएस लेवल के अफ़सर भी मेरा मज़ाक उड़ाते थे। वो कहते थे कि अगर तू पढ़ लेगा तो सफाई और कूड़ा कचरा उठाने का काम कौन करेगा।

सुनील ने जब विभाग को सूचित किया था कि वो उच्च शिक्षा ले रहे हैं तो लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया और कभी भी स्टडी लीव नहीं दी। सुनील ने जब इसका कारण आरटीआई के ज़रिये पूछने की कोशिश कि तो उन्होंने जवाब दिया कि सफाई कर्मचारियों को स्टडी लीव नहीं मिलती।

महानगर पालिका में सफाई कर्मचारियों के मौजूदा हालात पर सुनील बताते हैं कि , ‘हमारे महानगर पालिका में 28000 सफाई कर्मचारी कार्यरत हैं और हर साल 23 सफाई कर्मचारियों की मौत हो जाती है। सरकार सुरक्षा के उपकरण मुहैया नहीं कराती, जिसके चलते भारी संख्या में सफाई कर्मचारी बीमार रहते हैं और उनमें से कई की तो मृत्यु हो जाती है।

सरकार हमारी कोई मदद नहीं करती है। विदेशों से सफाई के लिए आधुनिक उपकरण लाना चाहिए पर सरकार तो सिर्फ़ ठेका प्रथा को प्रोत्साहित कर रही है। हमारे बीएमसी में लगभग 10000 ठेके पर काम करने वाले सफाई कर्मचारी हैं और उनकी भी हालत इसी तरह है। हमारी मौतों से न सरकार को फ़र्क पड़ता है न ही मीडिया को ये चीज़ दिखती है।’

सुनील जाति व्यवस्था को लेकर कहते हैं, ‘ये सच है कि मैं आज रिसर्च स्कॉलर हूं, लेकिन यह भी सच है कि मैं एक सफाई कर्मचारी हूं और दलित समुदाय से आता हूं। मेरे इस पूरे सफर में हर दिन मुझे ये अहसास दिलाया जाता था कि मेरी पहचान क्या है।

सुनील ने बताया कि जब उन्होंने टीआईएसएस में एमए में दाख़िला लिया तो उनपर कई तरह के सामाजिक दबाव बनाने के प्रयास किए गए कि वो पढ़ाई छोड़ दें। सुनील कहते हैं कि ऐसे वक्त में मुझे सिर्फ़ बाबासाहेब अंबेडकर, ज्योतिबा फूले और सावित्री बाई फूले की याद आती है। उनके संघर्ष को जब याद करता हूं तो बहुत शक्ति मिलती है कि इस समाज को बदलना है। मैं ये हीन भावना वाले विचार को समाप्त कर देना चाहता हूं।’

शिक्षा पर उनका कहना है, ‘मैं समझता हूं जीवन में शिक्षा का बहुत महत्व है। मेरी जाति के कारण अपमान तो सहना पड़ता है, लेकिन इसी शिक्षा के चलते आज मुझे बहुत जगह सम्मान भी मिलता है। कई लोग मेरा नाम मिसाल के रूप में भी लेते हैं।

बाबासाहेब भी कहते थे कि शिक्षा ही एक मार्ग है जीवन में सफल होकर समाज को बदलने का। वे कहते थे कि अगर तुम पढ़ोगे नहीं, तो जीवन में आगे कैसे बढ़ोगे? पुरानी व्यवस्था पर सवाल कैसे उठाओगे? मुझे उनसे बहुत प्रेरणा मिलती है। आज मैं शिक्षित हूं और अपने इर्द-गिर्द भी लोगों को जागरूक कर पा रहा हूं।’

आज उन्हें कई जगह बतौर वक्ता बुलाया जाता है। बहुत जगह सम्मान मिलता है राजनीतिक दल भी उन्हें शामिल करने की कोशिश करते हैं। लेकिन आज भी सिर्फ़ एक चीज़ नहीं बदली है, अंधेरा होते ही वे एक ‘मैन्युअल स्कैवेंजर’ हैं।

सुनील पीएचडी के बाद किसी निजी उद्योग में काम नहीं करना चाहते। पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही काम का वे विरोध करते हैं और चाहते हैं कि सबको सामान्य अवसर मिले। उनके इस बढ़ते क़दम से उनके विभाग के अफ़सर बहुत ही घबराए हुए हैं।

सुनील कहते हैं, ‘मैं ये नहीं चाहता कि मैं कोई कंपनी ज्वाइन करूं और बहुत पैसे कमाऊं। मैं इसी विभाग में रहना चाहता हूं और इसके भीतर जो कुरीतियां और अमानवीय चीज़ें हैं, उन्हें बदलना चाहता हूं और ख़त्म करना चाहता हूं।

हमारे देश में लाखों लोग यही घिनौना काम करते हैं और एक सफ़ाई कर्मचारी के बेटा या बेटी को भी वही काम क्यों करना चाहिए? क्या उसे अधिकार नहीं कि वो डॉक्टर बने, इंजीनियर बने या फिर आईएएस बने? ये जातिवाद हमारे सिस्टम में बैठा हुआ है और उसी सिस्टम के लोग चाहते हैं कि हम जैसे लोग शिक्षित न हों और आगे नहीं बढ़ें। वे चाहते हैं कि हम पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम करते रहें।

मैंने विभाग में लेबर अफ़सर के पद के लिए आवेदन किया था और ज़रूरत से ज्यादा शिक्षित होने के बावज़ूद मुझे वो पद नहीं दिया गया. मैं विभाग के अंदर जाति व्यवस्था की बात छोटे अधिकारियों के बीच की नहीं कर रहा, बल्कि आईएएस दर्जे के अफसरों के बारे में बता रहा हूं।

सुनील कहते हैं कि मुझे एक बार स्टडी टूर पर साउथ अफ्रीका जाना था और जब मैंने छुट्टी मांगी, तो मुझे साफ़ मना कर दिया गया था। मैंने इसकी शिकायत अनुसूचित जनजाति आयोग, दिल्ली में की। टीआईएसएस और आयोग के दख़ल के बाद मुझे जाने के लिए छुट्टी मिली। मुझे ऐसा लगा कि मेरे विभाग का हर अफ़सर यही चाहता था कि मैं उच्च शिक्षा ग्रहण करना बंद कर दूं।’

सुनील कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं कि हमारे बीच यानी जो सफाई कर्मचारी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं या फिर उच्च शिक्षा ले रहे हैं, उनको महानगर पालिका के काउंसिल में शामिल किया जाए। मैं विदेश भी गया हूं और वहां मैंने इस काम को आसान बनाने के लिए आधुनिक चीज़ों को देखा है। मैं चाहता हूं कि मैं महानगर पालिका को एक मॉडल बनाकर दूं, जिससे ये अमानवीय काम बंद हो जाए।

अपने आप को अंबेडकर और फूले का अनुयायी मनाने वाले सुनील का परिवार बहुत ख़ुश है। उनके साथ काम करने वाले सफाई कर्मचारियों में भी अब उनका प्रभाव बढ़ने लगा है। उनका यह भी कहना है कि वे एक मैन्युअल स्कैवेंजर हैं, लेकिन बतौर स्कैवेंजर मरेंगे नहीं।