सुप्रीम कोर्ट ने कहा : धार्मिक प्रथाएं संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार हों

केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी के मुद्दे पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। मंदिर के संचालक त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड ने कहा कि देशभर की मस्जिदों में भी महिलाओं को जाने की इजाजत नहीं है।

ऐसे में बिना किसी ठोस दलील के एक पीआईएल के आधार पर सिर्फ मंदिर के मामले पर ही सुनवाई क्यों हो रही है? बोर्ड ने कोर्ट को ऐसे धार्मिक संस्थानों की सूची भी सौंपी, जिनमें पुरुषों और स्त्रियों के प्रवेश पर पाबंदी है।

इस पर चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी जैसी सभी परंपरागत और धार्मिक प्रथाएं संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार ही होनी चाहिए।

बोर्ड को आड़े हाथों लेते हुए कोर्ट ने कहा कि केरल हाईकोर्ट में तो उसने कहा था कि सबरीमाला के देव अयप्पा के मंदिर में सालाना उत्सव के शुरुआती पांच दिन में महिलाओं को प्रवेश की छूट है। इसके बाद भीड़ बढ़ने की वजह से उनके प्रवेश पर पाबंदी रहती है। मसलन उनके प्रवेश पर सीधे कोई पाबंदी नहीं है।

संविधान पीठ ने बोर्ड से यह साबित करने को कहा कि क्या महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी धार्मिक प्रथाओं का अभिन्न अंग है। देवस्वम बोर्ड ने की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि यह प्रथा एक समुदाय के सदियों पुराने विश्वास पर आधारित है।

सबरीमाला मंदिर में कई ऐसे अनोखे रीति-रिवाज और विधान हैं, जिन पर गैर हिंदुओं की भी आस्था है। महज एक याचिका के आधार पर हिंदू धर्म को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।

कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 (धार्मिक स्वतंत्रता) का उल्लेख करते हुए कहा कि किसी भी व्यक्ति को मान्यताओं के आधार पर नहीं रोक सकते। जन स्वास्थ्य, सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के आधार पर ही किसी को रोक सकते हैं। 1950 के बाद देश में हर काम संविधान के दायरे में है। बोर्ड अगर मान्यताओं की बात करता है तो साबित करे कि महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी धार्मिक प्रथाओं का अभिन्न अंग है।