जब नेहरू बोले कि हिन्दुस्तान को ख़तरा हिन्दू सांप्रदायिकता से है!

आपने लठैत शब्द सुना होगा. गाँव मे यह शब्द अक्सर सुनने को मिलता है. लठैत अक्सर अपने प्रभाव का दुरुपयोग करके किसी न किसी कमजोर परिवार पर धौंस जमा लेता है, कमजोरों की जमीन पर कब्ज़ा करने का प्रयास भी करता है, लाठी के बल पर कमजोरों के साथ मार-कुटाई भी करता है. गाँव मे सदियों से ऐसा होता चला आ रहा है. इस मनोविज्ञान(Psychology) को समझने की जरूरत है.

आख़िर, लठैतों मे इतनी साहस कैसे होती है की कमजोरों को अपने लाठी के बल पर दबाकर रखने की कोशिश करता रहता है? मेरी समझ से लठैतों के पास जमींदारी होती है, आर्थिक रूप से मज़बूत होते है, परिवार मे सदस्यों की संख्या अधिक होती है, परिवार मे लाठी चलाने वालों की संख्या भी अधिक होती है जिस कारण गाँव पर राजनीतिक प्रभाव भी होता है. यही सब कारण है की लठैतों मे एक मनोवैज्ञानिक साहस होती है. हम इस लठैत शब्द को ही आज की अकादमिक भाषा मे बहुसंख्यकवाद बोल सकते है.

वर्तमान की राजनीतिक परिदृश्य मे बहुसंख्यकवाद को सांप्रदायिकता समझना एक बड़ी गलती है. आप एक भीड़ द्वारा दादरी के अखलाक की हत्या, राजस्थान मे पहलू खान की हत्या, पुणे मे मोहसीन शेख़ की हत्या, हरियाणा मे जुनैद की हत्या या फिर एक भीड़ के द्वारा दिल्ली की एक नवनिर्मित मस्जिद को शहीद करने की घटना की चरित्र को समझने का प्रयास कीजिये.

इस प्रकार की भीड़ मे इतनी साहस ने कैसे जन्म लिया की किसी की हत्या कर सके? सांप्रदायिक घटनाओं मे हमेशा दोनों गुट बदला की भावना मे डूबी रहती है. सांप्रदायिक घटनाओं मे कमजोर से कमजोर गुट भी बचाव के लिए मजबूत पक्ष के सामने ढीठ बनकर खड़ा होता है. क्या वर्तमान की हिंसाओं या घटनाओं मे ऐसा कुछ देखने को मिला की कमजोर पक्ष भी अपने बचाव के लिए मज़बूत पक्ष से सामने खड़ा हो? ऐसा बिलकुल भी नहीं हुआ बल्कि भीड़ आती है और अपने टार्गेट को पूरी करके चली जाती है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सभी घटनायें बहुसंख्यकवाद से प्रेरित था. जिसमें बहुसंख्यक समाज के लोगों की एक भीड़ के दिमाग मे भारत मे 85 प्रतिशत की आबादी, भारत के संसाधन पर बहुसंख्यक समाज का हक़, केंद्रीय-सत्ता पर बहुसंख्यक समाज के हितों की रक्षा वाली सरकार जैसी बातें बैठ चुकी थी. अर्थात, गाँव मे जिस प्रकार लठैतों की मानसिकता होती है ठीक उसी मानसिकता से आज बहुसंख्यकवादी ग्रसित है.

आज के नवबुद्धिजीवियों ने भी बहुसंख्यकवाद को मज़बूत करने मे बहुत खाद-पानी देने का काम किया है. आज के बुद्धिजीवी बहुसंख्यकवाद और सांप्रदायिकता मे फ़र्क करने से डरते है. बल्कि, बुद्धिजीवियों ने इसके विपरीत बैलेन्स बनाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों प्रकार के सांप्रदायिकता को कोसने लगते है. जबकि ईमानदारी इसमे थी की घटनाओं के चरित्र का अध्ययन करके उस बिन्दु को चिन्हित किया जाता जो सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवाद मे फर्क करता है. एक व्यक्ति जैसे ही बोलना शुरू करता है की देश के लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों प्रकार की सांप्रदायिकता ख़तरनाक है ठीक वह व्यक्ति बहुसंख्यकवाद को मज़बूत करना शुरू देता है. क्योंकि सांप्रदायिकता शब्द आते ही हम धर्म के आड़ मे होने वाली घटनाओं के चरित्र पर विचार करना शुरू कर देते है और भूल जाते है की इस घटना के बीच मे बहुसंख्यक राजनीति का कितना योगदान है?

बहुसंख्यकवाद के भय को साबित करने के लिए हमारे पास महात्मा गांधी का उदाहरण है. जब जनवरी 1948 मे महात्मा गांधी उपवास पर थे उस समय किसी ने गांधी जी से प्रश्न किया था. प्रश्न था, क्या आप मुस्लिम प्रस्त है? महात्मा गाँधी जी का उत्तर था “हाँ, मैं कुबूल करता हूँ की मुस्लिम प्रस्त हूँ. मैं भारत मे मुस्लिम प्रस्त हूँ और पाकिस्तान मे हिन्दूप्रस्त हूँ. यह बहुत स्पष्ट है की मैं बहुसंख्यकवाद के विरोध मे हूँ.”

आज खुद को सेकुलर, गांधीवादी और वामपंथी कहने वाले लोगों मे भी इतनी साहस नहीं बचा है कि खुलकर और स्पष्ट रूप से बोल सके की देश को हिन्दू-बहुसंख्यकवाद से खतरा है. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू की एक बात बहुत मशहूर है. नेहरू प्रधानमंत्री के रूप मे अधिकारियों की बैठक कर रहे थे. अधिकारियों के साथ उनकी यह आख़िरी बैठक साबित हुई. जब नेहरू जी बैठक ख़त्म करके वापस जा रहे थे तब अचानक दरवाजा से वापस लौटे और अधिकारियों को सूचित किया कि भारत को खतरा हिन्दू-सांप्रदायिकता से है. यह हिन्दू-सांप्रदायिकता ही बहुसंख्यकवाद के रूप मे देश को बर्बाद कर रही है. आप बुद्धिजीवी इस सच्चाई को स्वीकारने से घबराते क्यों है.

  • तारिक अनवर चम्पारनी