कैराना में भाजपा की हार : आदित्यनाथ के सामने अब कठिन डगर?

बीजेपी के स्टार प्रचारक बने और उनका कर्नाटक जैसे राज्य में भी पार्टी द्वारा बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। फिर भी, घरेलू चुनावों में उनका रिकॉर्ड कुछ प्रभावशाली नहीं रहा है। वास्तव में मार्च और मई के बीच की अवधि में उनका स्कोर 4-0 है जो उनके पक्ष में नहीं है।

इससे भी बदतर, राज्य के पूर्वी और पश्चिमी दोनों हिस्सों में नुकसान हुआ है। हार का यह सिलसिला गोरखपुर और फूलपुर से शुरू हुआ और वह कैराना और नूरपुर में भी जारी रहा। इन दोनों ही सीटों पर भाजपा को संयुक्त विपक्ष के सामने मुंह की खानी पड़ी है।

विश्लेषकों का कहना है कि आदित्यनाथ कैबिनेट में बदलाव के लिए दबाव डाल रहे हैं। वे बताते हैं कि पार्टी चलना आसान नहीं रहा है और मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के बीच बढ़ते मतभेद चर्चा का विषय रहे हैं। अब सवाल योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व पर खड़ा होने लगा है।

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि योगी सरकार पिछले एक वर्ष में अपने तमाम वायदों को पूरा करने में विफल रही है। भाजपा ने सरकार में आने से पहले किसानों से वायदा किया था कि बिक्री के 14 दिन के भीतर गन्ना किसानों को उनकी फसल की लागत मिलेगी, वह जमीन पर लागू नहीं हो पाया है।

उत्तर प्रदेश में विपक्ष की एकजुटता को और अधिक व्यापक बनाने की गरज से चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन को विपक्ष का साझा उम्मीदवार बनाया गया था। इसी तरह से नूरपुर में सपा के उम्मीदवार नईमुल हसन को बाक़ी दलों ने समर्थन दिया था।

चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी के लिए ये उपचुनाव राजनीतिक अस्तित्व का सवाल बन गया था, इसी के मद्देनज़र उन्होंने पूरी ताकत वहां झोंक दी थी और मुस्लिम जाट वोटर ने कैराना में भाजपा को हरा दिया।

मेरठ के एक दलित कार्यकर्त्ता सतीश कहते हैं कि योगी को रोकने के लिए जाट, गुर्जर और मुसलमानों ने राष्ट्रीय लोकदल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन को वोट दिया। यहां भाजपा ने जीत के लिए कई हथकंडे अपनाये लेकिन वो सब विफल रहे। जिन्ना और गन्ना भी चुनाव प्रचार के दौरान खूब चला। बीजेपी और विपक्ष ने यहां भी पूरी ताकत झोंक दी। आखिर में बीजेपी को दोनों जगह हार का मुंह देखना पड़ा है।

बीजेपी की हार की कई वजहें मानी जा रही हैं। एक तो मुजफ्फरनगर दंगे के बाद 2013 में टूटा जाट-मुस्लिम एकता समीकरण फिर से बन गया। सहारनपुर और दो अप्रैल को भारत बंद के दौरान हिंसा में दलित उत्पीड़न के बाद उनकी नाराजगी के चलते उन्होंने बीजेपी से किनारा कर विपक्ष के उम्मीदवार को पसंद किया।

किसानों को फसलों के सही दाम नहीं मिलने, बकाया गन्ना भुगतान को लेकर बार-बार किसानों को परेशान करने, कर्जमाफी के नाम पर चंद किसानों को लाभ देने के मुद्दे पर शुगर बाउल में किसान बीजेपी से खफा हो गए। विपक्ष का एक मंच पर आना और जाट-मुस्लिम-दलित का गठजोड़ बीजेपी की हार की बड़ी वजह बना।