ऐसा लग रहा है कि शहरीकरण के फायदों को ठुकराया जा रहा है!

अहमदाबाद से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भावनगर के किसान स्थानीय शहरी विकास प्राधिकरण द्वारा अपने गांव को शहरी सीमा में शामिल किए जाने का विरोध कर रहे हैं। ऐसा ही विरोध सूरत, हिम्मतनगरऔर मोरबी-वांकानेर के करीबी गांवों में भी देखने में आया है। यह आसामान्य रुख है।

ऐसा लग रहा है कि शहरीकरण के फायदों को ठुकराया जा रहा है। इस दौरान, भारत के शहरी इलाकों में प्रदूषण ने एक रिवर्स माइग्रेशनकी शुरुआत कर दी है। हरियाणा के गांवों के किसान, जो खेती पर आए संकट से खुद को बचाने के लिए ड्राइवर-क्लीनर बनने दिल्ली, गुरुग्राम चले गए थे, जहरीला प्रदूषण बर्दाश्त नहीं कर पाने के चलते सर्दियों में अपनेखेतों को लौटने लगे हैं।

और अब सिर्फ महानगर ही नहीं- कानपुर या ग्वालियर जैसे छोटे शहर भारत के सबसे प्रदूषित शहरों में नाम दर्ज कराने लगे हैं। डब्ल्यूएचओ की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 20 सबसेप्रदूषित शहरों में 9 अकेले भारत में हैं। भारत का शहरीकरण का मॉडल अब बदलाव के लिए तैयार है।

संयुक्त राष्ट्र विश्व शहरीकरण आकलन, 2018 में कहा गया है कि भारत की करीब 34 फीसद आबादी शहरों में रहती है।यह साल 2011 के मुकाबले 3 फीसद ज्यादा है।

और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि मौजूदा महानगरों(ऐसे नगर जिनकी आबादी 50 लाख से ज्यादा है) की आबादी 2005 के बाद से आमतौर पर स्थिर है, और इस दौरान 10-50 लाख आबादी वाले छोटे शहरों की संख्या बढ़कर 34 से 50 हो गई है। धीमी शुरुआत के साथ(वर्ष 2008 में 23 करोड़ पहुंचने में 40 साल लगे ), वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के अनुमान के मुताबिक शहरों में रहने वाली आबादी बढ़ते हुए वर्ष 2050 में 81.4 करोड़ तक पहुंच जाएगी।

फिर भी भारत के शहर बदहाल, गरीबीमें लिपटे, खराब बुनियादी ढांचे के चलते योजना (अगर कोई है!) का बहुत मामूली भौतिक अहसास देते हैं। भारत के ज्यादातर शहर अपनी क्षेत्रीय, भौगोलिक या सांस्कृतिक पहचान की नुमाइंदगी करने के बजाय धीरे-धीरेएक दूसरे की प्रतिकृति बनते जा रहे हैं और ऐसा लगता है कि विश्व के मॉल कल्चर से प्रभावित हैं।

शहरी आबादी बढ़ने के साथ ही साफ पानी, सार्वजनिक परिवहन, सीवर ट्रीटमेंट और अफोर्डेबल हाउसिंग जैसी बुनियादी सेवाओं की मांग में भी बढ़ोत्तरी होगी। इस बीच, स्मार्ट सिटी के तहत 90 स्मार्ट सिटी में 2,864 परियोजाएं तय की गई हैं, लेकिन जैसा कि अमल के मोर्चे पर यहां हमेशा होता है, सिर्फ 148 परियोजनाएं पूरी हुईं, और 70 फीसद से अधिक अभी भी तैयारी के विभिन्न चरणों में हैं।

आखिर में, एक करोड़ अफोर्डेबल हाउस(जबकि सरकार इनके निर्माण के लिए बढ़ावा दे रही है) की अभी भी जरूरत है। मुंबई में नियमित अंतराल पर आने वाली बाढ़, दिल्ली में डेंगू, बेंगलुरू की झील में आग चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं। दिल्ली मुंबईऔद्योगिक कॉरिडोर और आने वाली बुलेट ट्रेन का काम निश्चय ही, धीमी रफ्तार के साथ जारी है, लेकिन शहरी भारत की चौतरफा चुनौतियां अपनी जगह कायम हैं।

सबसे शुरुआती समस्या है परिभाषा की- वाकई में किसे शहर कहा जाना चाहिए? शहरी विकास राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार में आता है, और आबादी, सघनता, स्थानीय निकाय के लिए राजस्व की उगाही, आबादी के हिस्सेका गैर-कृषि कार्यों में लगा होने जैसे मानकों के आधार पर प्रदेश के राज्यपाल किसी क्षेत्र को शहरी क्षेत्र अधिसूचित करते हैं।

इस अधिसूचना से किसी क्षेत्र को “स्टेच्यूटरी टाउन (वैधानिक शहर)” का दर्जा मिल जाता है औरस्थानीय शहरी सरकार या नगर पालिका का जन्म होता है। ऐसी अस्पष्ट परिभाषा के चलते, स्वविवेक से किए फैसलों से अलग-अलग किस्म के शहर जन्म लेते हैं- उत्तर भारत के पहाड़ी इलाकों में आप चंद सैकड़े की आबादीवाले शहर देख सकते हैं (उदाहरण के लिए गंगोत्री, नारकंडा)। दूसरी तरफ, गुजरात से लेकर मेघालय तक एकदम अलग किस्म के राज्यों में 13,000 से कम आबादी वाली बस्ती को “गांव” माना जाता है।

केंद्र सरकार किसी बस्ती को शहरी मानती है, अगर इसकी आबादी 5,000 से ज्यादा है और इसकी शहरी स्थानीय सरकार है; इसकी 75 फीसद से ज्यादा आबादी गैर-कृषि कार्यों में लगी है और आबादी सघनता प्रति वर्गकिलोमीटर 400 व्यक्ति से ज्यादा है। वैसे कई राज्य ऐसे “सेंसस टाउन” को गांव मानते हैं और इनका ग्रामीण स्थानीय सरकार या पंचायत के माध्यम से प्रशासन चलाते हैं।

लंबे समय से परिभाषा में ऐसे अंतर के कारण, अटपटे आंकड़े मिलते हैं। साल 1951 से 1961 के दौरान भारत में मान्यताप्राप्त शहरों की संख्या में वास्तव में कमी (3,060 से 2,700) आई, क्योंकि कई पुराने शहर गांव मान लिए गए। इसका वास्तविक जीवन पर भी असरपड़ा- पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी में दबग्राम का ही मामला लीजिए, जिसे 1,20,000 से ज्यादा की आबादी के बावजूद सिर्फ “सेंसस टाउन” का दर्जा दिया गया है; और यह सिलीगुड़ी से महज 3 किलोमीटर दूर स्थितहै।

एक और मुद्दा है, शहरों के बुनियादी ढांचे में बहुत कम निवेश और कौशल विकास का। इस समय भी शहरी बुनियादी ढांचे पर भारत सालाना प्रति व्यक्ति करीब 17 डॉलर (करीब 1,166 रुपये) खर्च करता है; यह वैश्विकस्तर 100 डॉलर (6,862 रुपये) और चीन 116 डॉलर (7,960 रुपये) की तुलना में काफी कम है।

सरकारें आती-जाती रहती हैं, और तरह-तरह की योजनाओं का ऐलान करती हैं, जिनमें जेएनएनयूआरएम भी शामिल है- लेकिन इन पर ज्यादातर अपर्याप्त अमल होता है।एक साधारण से उदाहरण को देखिए- जयपुर और बेंगलुरू अपने आकलित संपत्तिकर का 5-20 फीसद ही वसूल पाते हैं; आखिर सख्ती किए बिना स्थानीय निकाय कैसे कामकर सकते हैं?

लेखक- ‘सासंद वरुण गांधी’