“उस ख़ुदा ने जहान बनाया
अरमानों से उसे सजाया,
फिर नीचे इंसान को लाया
देख उन्हें फिर वह मुस्काया,
आदम हव्वा थे कहलाते
मर्द और औरत जाने जाते,
खुले असमान में थे गाते
हमें ख़ुदा ने एक बनाया
दिन बीते और गया वो कहना
हम तुम एक दूजे का गहना
औरत को देहलीज़ में रहना
घर का मालिक मर्द कहलाया
सदियाँ बीती वही नज़ारा
कोने में औरत का गुज़ारा
कायम है पर आदम का नारा
ख़ुदा ज़मीन का हमें बनाया
ख्वाहिशें आँखों में बहती
फिर भी औरत कुछ न कहती
जंजीरों में कैद थी रहती
उन्हें पर अपना सरताज बनाया
औरत बोली मुझे टोको मत
आगे बढ़ना है रोको मत
जहन्नुम में मुझे झोको मत
सदियों तुमने मुझे रुलाया
मर्द बोला इतराती क्यों हो
हमसे कदम मिलाती क्यों हो
ज़र्रा हो यह भूल जाती हो
और फिर अपना जोर जताया
कब तक यह जंग जारी रहेगी
औरत कब तक बेचारी रहेगी
आदम से कब तक हारी रहेगी.”
– कवि, एंकर और रचनात्मक निर्देशक आतिका अहमद फारूक़ी