कैसी बस्तियां बन रही हैं भारत के शहरों में जहां जाति और धर्म देख कर मकान मिलते हैं?

भारत के तेजी से बढ़ते शहरों में गरीबों, अल्पसंख्यकों की जगह कहां है. आसपास देखिये तो गंदे, बदबू भरे, कच्चे पक्के घरों का संसार नजर आएगा. कैसी बस्तियां बन रही हैं भारत के शहरों में जहां जाति और धर्म देख कर मकान मिलते हैं?

मुंबई की एक सामाजिक संस्था के प्रमुख अरुण कुमार और उनकी टीम शहर के गरीब इलाकों में जा कर लोगों को पानी, सफाई, स्वास्थ्य जैसी नागरिक सुविधाओं के लिए प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए तैयार करती है. एक इलाके से दूसरे ऐसे उनका सफर चलता रहता है. हालांकि एक इलाका ऐसा है जहां जाने के 25 साल बाद भी उनकी टीम नहीं निकल पाई.

यह इलाका है मुंबई ईस्ट वार्ड. करीब 6 लाख बाशिंदों की यह झुग्गी बस्ती शहर के सबसे बड़े लैंडफिल एरिया के पास ही है. आंकड़ों से पता चलता है कि रहने वालों में ज्यादातर मुस्लिम हैं. नागरिक सुविधाओं के अलावा जीवन प्रत्याशा और नवजात बच्चों के मृत्यु दर के लिहाज से भी यह इलाका बेहद पिछड़ा है.

अरुण कुमार कहते हैं, “इस वार्ड को भी शहर के दूसरे वार्ड के बराबर ही पैसा मिलता है लेकिन वास्तव में उसका बहुत छोटा हिस्सा ही खर्च होता है. इसे लेकर उदासीनता है और कुछ करने की इच्छा का निहायत अभाव है.”

विश्लेषकों का कहना है कि मुंबई ईस्ट वार्ड इस बात का उदाहरण है कि चमचमाते आलीशान दफ्तरों, शानदार फ्लैट्स वाली इमारतों और बहुमंजिले मॉल से जगमगाते भारत के शहरों में करोड़ों गरीब मुसलमान, प्रवासी और दलित अपनी जाति या धार्मिक आधार पर बंटी झुग्गियो में कैसे सिमटते जा रहे हैं.

दिल्ली यूनिर्सिटी में रिसर्चर अनसुआ चटर्जी कहती हैं, “हमारे शहर हमेशा से संपत्ति, जाति और नस्ल के आधार पर बंटे रहे हैं. अब जाति और धर्म की लकीर और बड़ी हो गई है तो अलग अलग बस्तियों में सिमटना और बंटवारा ऐसा लगता है कि सबसे बुरे हाल में पहुंचने को है.”

चटर्जी ने कोलकाता पर एक किताब भी लिखी है वो कहती हैं, “(नगर) प्रशासन शहरी इलाकों को धर्म के आधार पर पुनर्व्यवस्थित करने में नाकाम रहा है जिसका नतीजा है कि मुसलमानों के जगहें लिए बंद और संकुचित हो रही हैं.”

मुंबई के एक अधिकारी ने इस बात से इनकार किया कि किसी तरह का अलगाव है या जानबूझ कर मुंबई ईस्ट वार्ड में सुविधाएं नहीं दी जा रही हैं. असिस्टेंट कमिश्नर श्रीनिवास किलजे ने कहा, “हमने पानी, नाली और दूसरी सुविधाओं के लिए बजट बनाया है और शहर की विकास योजना के मुताबिक उन्हें हर चीज दी जा रही है. कुछ कमियां हैं लेकिन यह कहना गलत होगा कि वहां कोई सुविधा नहीं या उसकी अनदेखी की जा रही है.”

इस तरह की ज्यादातर बस्तियां 1947 में भारत के बंटवारे के बाद बनीं. मुसलमानों ने बुनकर, रंगरेज या फिर कुम्हार जैसे अपने पेशों के आधार पर कुछ खास इलाकों में अपनी बस्तियां बना लीं.

दिल्ली, मुंबई और अहमदाबाद जैसे उत्तर और पश्चिम भारत के शहरों में पिछले दशकों में दंगों के बाद इस तह की कई बस्तियों का जन्म हुआ. इनमें सुरक्षा के लिए मुसलमानों ने या तो साथ आकर रहना शुरु किया या फिर मिली जुली बस्तियों से निकल कर यहां रहने पर मजबूर हुए.

विश्लेषकों का कहना है कि भारत में मुसलमानों की आबादी 13 फीसदी है लेकिन इसके बाद भी उन्हें किराए पर घर लेने में या फिर मकान खरीदने में भेदभाव सहना पड़ता है. धार्मिक समुदायों के बीच भेदभाव की गहरी लकीर भारत के उभरते शहरों से बहुसंस्कृति की प्रवृत्ति को खत्म कर रही है. यहां ऐसी बस्तियां बन रही हैं जो धार्मिक आधार पर बंटी हैं.

गुजरात जैसे कुछ राज्यों में जहां बड़े पैमाने पर दंगे हुए वहां तो ऐसे कानून भी हैं जो हिंदू और मुसलमानों के लिए एक दूसरे को संपत्ति बेचने से रोकते हैं.

दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर गजाला जमील कहती हैं, “वे आपस में एक दूसरे को अलग नहीं करते: शहर पूंजी जमा करने और मुनाफा कमाने के केंद्र हैं और ऐसी जगहों पर गरीबों से भेदभाव होता है.

मुसलमान सबसे गरीबों में हैं. सरकार की तरफ से इस अलगाव को खत्म करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता. एक तरह से यह असमानता से निपटने का प्रशासन का तरीका है.” दिल्ली की मुस्लिम बस्तियों पर गजाला ने हाल ही में एक किताब भी लिखी है.

भारत की 125 करोड़ में से एक तिहाई आबादी शहरों में रहती है. ऐसी जगहों पर हर रोज दसियों हजार लोग गांवों से काम या मौके की तलाश में आते हैं. इनमें से ज्यादातर निर्माण क्षेत्र में मजदूरी या फिर घरेलू काम और सुरक्षा गार्ड की नौकरी पाते हैं. मुंबई में ही आधी से ज्यादा आबादी झुग्गियों में रहती है. इनमें से ज्यादातर लोग मुसलमान और निचली जाति के हिंदू हैं.

अलग थलग बस्तियां उनकी गरीबी और अलगाव के संकट को और बढ़ा देती हैं. नौकरियों और बैंक से कर्ज के आवेदन भी अकसर इन इलाकों में रहने के लिए ठुकरा दिए जाते हैं. चटर्जी अपनी किताब के लिए किए इंटरव्यू का हवाला देकर कहती हैं, “यहां तक कि जिन लोगों के पास इन इलाकों से निकलने के साधन हैं उन्हें भी जगह नहीं मिलती सिर्फ उनके धर्म के कारण. भले ही यह बंधन सीधा हो या अप्रत्यक्ष लेकिन इसने हिंदू मुसलमानों के बीच की खाई को गहरा किया है.”

स्मार्ट सिटी के रूप में शहरों को विकसित करने की महत्वाकांक्षी योजना में गरीब और अलग थलग पड़ जाएंगे क्योंकि सस्ते मकान बहुत तेजी से दुर्लभ होते जा रहे हैं. जमील कहती हैं, “शहरी बस्तियां वास्तव में श्रम बाजारों की अभिव्यक्ति हैं, दरअसल ये मुसलमानों समेत गरीब समुदायों के लिए एक तरह का आर्थिक शोषण और नियंत्रण है.”

मुंबई इसी तरह का मामला है. देश भर से लोग यहां उमड़े चले आते हैं. 1992-93 में हिंदू मुस्लिम दंगों के बाद यहां दरार गहरी हो गई. हालांकि छोटे शहरों के लिए भी यह बात उतनी ही सच है. स्थानीय मीडिया के मुताबिक मेरठ में हाल ही में हिंदुओं ने एक मुस्लिम परिवार को हिंदुओं की बस्ती में खरीदे एक घर को छोड़ने पर विवश कर दिया.

संवेदनशील शहरी योजना अलगाव के असर को कम करने का एक तरीका हो सकता है लेकिन चटर्जी कहते हैं कि ताकवर बिल्डर अक्सर सम्मिलित बस्तियों की योजना के खिलाफ खेमेबाजी करते हैं.

अब तो प्रभावशाली समुदाय, अल्पसंख्यक समुदाय की संस्कृति को एक उत्पाद की छवि देने लगा है. इन बस्तियों को उनके विशिष्ट खान पान या खास तरह के वास्तुकला के कारण सैलानियों के आकर्षण के रूप में पेश किया जाने लगा है.

जमील कहती हैं, “पुरानी दिल्ली या पुराने हैदराबाद के इलाके में खाने या फिर खरीदारी करने जाना सुनने में अच्छा लगता है लेकिन यह विभाजन को स्थायी बना रहा है.”

सौजन्य- dw hindi