जानिए क्या होती है शरई अदालत, कठघरे में क्यों है शरिया कोर्ट

नई दिल्ली : मुसलमानों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था, ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ ने देश भर में शरई अदालतों के विस्तार का फैसला किया है। उसके इस फैसले पर विवाद खड़ा हो गया है। कहा जा रहा है कि बोर्ड देश के अंदर समानांतर न्यायिक व्यवस्था स्थापित करना चाहता है, जिससे देश की एकता और अखंडता को खतरा पैदा हो सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह विवाद ऐसे मौके पर खड़ा हुआ है, जब आम चुनाव-2019 की दस्तक हो चुकी है। इस वजह से इस मुद्दे के जरिए राजनीतिक नतीजों पर असर पड़ने से इनकार नहीं किया जा रहा। शरई अदालतों के बारे में चल रही बहस में शिरकत करने से पहले यह समझना जरूरी है कि ये होती क्या हैं, इनके कामकाज का तौर-तरीका क्या होता है, इसके फैसलों की आखिर कितनी बाध्यता है। क्या यहां भी न्याय पाने के लिए याची को अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है?

शरिया अदालत के बारे में जो झूठी अफवाह फैलाई जा रही है वो सब 2019 के चुनाव की वजह से हो रही है। लेकिन शरिया अदालत में ऐसा कुछ भी नहीं ये महज मध्यस्थता और सलाह केंद्र होते हैं। शरई अदालत तो आम बोलचाल में इसका नाम पड़ गया। इनका असल नाम है दारुल कज़ा, जिसका शाब्दिक अर्थ है – न्याय का घर। इनके फैसलों को मानने की न तो कोई बाध्यता होती है और न ही इनके फैसलों को कोई कानूनी कवच ही हासिल होता है।

दरअसल, यह एक तरह से विवाद के वैकल्पिक समाधान का रूप है। अदालतों में मुकदमों की भारी भीड़ और वकीलों की महंगी फीस से मुसलमानों को बचाने के नजरिए से पर्सनल लॉ बोर्ड इन्हें स्थापित करता है। यह केवल फैमिली लॉ के तहत आने वाले मामले, जैसे – शादी, तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार, बच्चों की निगरानी से जुड़े मामलों की सुनवाई और अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार रखती हैं। ऐसा कोई भी मामला जो पहले से अदालत में विचाराधीन है, उसकी सुनवाई का अधिकार शरई अदालत को नहीं है।

ऐसे मामलों की सुनवाई वे उसी सूरत में शुरू करेंगी, जब अदालत से मुकदमा वापस ले लिया जाएगा। भारतीय दंड संहिता के दायरे में आने वाले किसी भी मामले की सुनवाई का हक शरई अदालतों को नहीं है। जब इसके फैसलों को मानने की कोई बाध्यता ही नहीं तो ज़ाहिर है अदालत में चुनौती देने या न देने का सवाल नहीं उठता। चूंकि इसकी राय (फैसलों) को कोई कानूनी कवच भी हासिल नहीं होता, इसलिए इसको लागू करवाने के लिए भी अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता।

व्यक्ति अपनी शिकायत और अपनी अपेक्षा एक सादे कागज पर लिखकर दारुल कज़ा के काज़ी को देता है। काज़ी यह परीक्षण करते हैं कि यह मामला दारुल कज़ा में सुनवाई के दायरे में आता है या नहीं। अगर आता होता है तो वह प्रतिवादी को नोटिस भेजते हैं। अगर नोटिस भेजने पर प्रतिवादी नहीं आता है तो शरई अदालत मुकदमे की सुनवाई से मना कर देती हैं। अगर प्रतिवादी हाजिर हो जाता है तो सुनवाई शुरू होती है। सुनवाई के दौरान अगर काजी की मध्यस्थता के बावजूद कोई सहमति नहीं बन पाती तो काजी इस मामले को खारिज कर देते हैं।

इसमें सुनवाई होने के लिए कोई भी फी नहीं होती है। इस वक्त देश में 62 शरई अदालतें हैं। पर्सनल लॉ बोर्ड किसी स्थान को लेकर अगर खुद जरूरत महसूस करता है या स्थानीय स्तर से ऐसा कोई प्रस्ताव आता है तो बोर्ड की एक कमिटी इसका परीक्षण करती है। अगर जरूरत सही पाई जाती है तो बोर्ड इसकी अनुमति देता है। काजी को बोर्ड ही नियुक्त करता है।

शरई अदालतों से मुसलमानों को कितना फायदा

ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव जफरयाब जिलानी के अनुसार शरई अदालतों से मुसलमानों को बहुत फायदा होता है। अदालतों में मुकदमों की भीड़ है, केस लड़ने के लिए फीस भी महंगी है, जबकि दारुल कज़ा से सस्ते में न्याय मिल जाता है। दारुल कज़ा में मामलों की सुनवाई तभी शुरू होती है जब प्रतिवादी उसके नोटिस को स्वीकार करता है। नोटिस स्वीकार करने मतलब है कि वह शरई अदालत के फैसले को मानने का हिमायती है।

लेकिन संदेश यह जा रहा है कि मुसलमानों की तरफ से समानांतर न्यायिक व्यवस्था स्थापित की जा रही है। जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वे नासमझ हैं। सुप्रीम कोर्ट तक यह फैसला दे चुका है कि दारुल कज़ा समानांतर न्यायिक व्यवस्था नहीं है। जफरयाब जिलानी के उलट शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की राय में ये अदालतें देश के लिए खतनाक हैं।