“केवल संघ नहीं है भाजपा और केवल भाजपा नहीं है संघ. ब्राह्मणवाद ही आरएसएस है और संघी ही ब्राह्मणवादी है”. इस पंक्ति पर ध्यान देने की आवश्यकता है. आरएसएस एक ब्राह्मणवादी संगठन है. यह एक ऐसा संगठन है जो सरकार बनाने से अधिक ज़ोर अपनी विचारधारा की स्थापित करने पर लगाता है. आरएसएस के लिए भाजपा जरूर एक राजनीतिक संगठन है मगर आरएसएस के लिए भाजपा ही सभी कुछ है, ऐसा भी नहीं है. आरएसएस का सिंगल-पॉइंट अजेंडा ब्राह्मणवाद को मजबूत करना है. इसलिए भाजपा के हिंदुवादी सरकार मे मुसलमानों से अधिक हिंसात्म्क घटना दलितों के साथ हुआ है. क्योंकि दलित उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था का हिस्सा नहीं है.
सेकुलरिज़्म के चरित्र पर हमेशा बहस होती रहती है. भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक और बहुभाषायी देश मे सेकुलरिज़्म पर बहस चलती रहेगी. सेकुलरिज़्म एक ऐसा विषय है जिसपर बहस कभी भी ख़त्म नहीं हो सकती. इधर कुछ वर्षों से सेकुलरिज़्म पर अचानक से बहस में तेज हो गयी है. भारतीय संविधान के चारित्रिक सेकुलरिज़्म और भारतीय राजनीति की चारित्रिक सेकुलरिज़्म मे दक्षिण ध्रुव और उत्तरी ध्रुव का फर्क है. हाल-फिलहाल मे घटित हुई राजनीतिक घटनाक्रम के आधार पर यह तय किया जा सकता है कि ब्राह्मणवादियों के लिए सेकुलरिज़्म एक राजनीतिक टूल मात्र है.
काँग्रेस की ब्राह्मणवादी चरित्र से प्रत्येक व्यक्ति अवगत है. काँग्रेस अपनी शुरुआत से ही ब्राह्मणो की पार्टी रही है. इसी ब्राह्मणवादी चरित्र को पहचानते हुए ही मुसलमानों ने मुस्लिम लीग की स्थापना किया था. मेरी समझ से मुस्लिम लीग की स्थापना ने काँग्रेस के सामने एक चैलेंज पेश किया और पृथक निर्वाचन की मांग शुरू किया. तभी काँग्रेस ने ही हिन्दू महासभा नाम से एक समानान्तर संगठन खड़ी कर दिया. मदन मोहन मालवीय, लालचंद और लाला लाजपत राय जैसे काँग्रेस से सहानुभूति रखने वाले नेता हिन्दू महासभा के समर्थक थे. हिन्दू-महासभा और मुस्लिम लीग का आपस मे टकराना ही ब्राह्मणों के लिए वरदान साबित हुआ. यही से सेकुलर राजनीति की शुरुआत होती है. मुस्लिम लीग ख़ालिस मुसलमानों की और हिन्दू महासभा ख़ालिस हिंदुओं की पार्टी बनकर रह गयी. इसी बीच से काँग्रेस अपना रास्ता निकालकर सेकुलरिज़्म का नाम देते हुए ब्राह्मणवादी साम्राज्य को स्थापित किया. आम जनमानस के मन मे ब्राह्मणों के सेकुलरिज़्म को लेकर एक सकारात्मक ओपिनियन तैयार किया गया जिसे जनता ने बखूबी स्वीकार कर लिया.
ब्राह्मणवाद को फलने-फूलने के लिए हमेशा सेकुलरिज़्म की जरूरत पड़ती है. उदाहरण के रूप मे दक्षिण भारत के द्रविड़ आंदोलन को देख सकते है. पेरियार के द्राविड़ आंदोलन के बाद दक्षिण भारत मे ब्राह्मणवादी संस्कृति के विरोध मे एक जबर्दस्त आवाज़ उभरा. दक्षिण भारत और उत्तर भारत के लोगों मे एक वैचारिक भिन्नता का विकास हुआ. लोगों की ब्राह्मणवादी सोच मे भारी गिरावट होती गयी. दक्षिण भारत की राजनीति मे धर्म का बहुत बड़ा योगदान नहीं रह गया था. द्राविड़ आंदोलन का प्रभाव था की तमिलनाडू भारत का एकमात्र राज्य बन गया जहां पर ब्राह्मणो का सामाज और राजनीति पर वर्चस्व नहीं था और ना ही ब्राह्मण सांस्कृतिक श्रेष्ठा के मानक समझे या माने जाते थे. द्राविड़ आंदोलन पर कब्ज़ा करके जयललिता तमिलनाडू मे सत्ता के शीर्ष पर पहुँचती है. जयललिता अपनी छवि एक सेकुलर नेता की बनाती है. इस बीच मे सामाजिक रूप से एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है. ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जो आवाज़ उभरी थी वह पूरी तरह से ख़त्म हो चुकी होती है. परिणामस्वरूप “जालिकट्टू” जैसा मुद्दा तमिलनाडू की राजनीति मे उभरकर सामने आता है. कल तक जिस भाजपा को ‘आर्य श्रेष्ठा’ और हिन्दी अंधभक्ति के प्रतीक के रूप मे घृणा का पात्र माना जाता था जयललिता उसी दल से समझौता कर बैठती है. ब्राह्मणवादी लोग हमेशा सेकुलरिज़्म का प्रयोग उस जगह करते है जहां पर किसी स्थापित आंदोलन को कमजोर करना पड़ता है.
उत्तर भारत मे काँग्रेस के हेमवती-नंदन बहुगुणा एक कद्दावर नेता थे. केंद्र की राजनीति मे भी उनका एक प्रभाव था. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने थे. उनके पुत्र विजय बहुगुणा भी लंबे समय तक उत्तराखंड से काँग्रेस के मुख्यमंत्री थे. हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी और विजय बहुगुणा की बहन रीता-बहुगुणा जोशी भी उत्तरप्रदेश काँग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष, विधायक और विधायक दल की नेता रही है. सेकुलरिज़्म के नाम पर पूरा परिवार दो राज्यों मे अपना साम्राज्य स्थापित करने मे सफल रहा. कल के सेकुलर दोनों भाई और बहन आज भाजपा की शरण मे है. नारायणदत्त तिवारी एकमात्र ऐसे नेता हुए है जिनको उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड दोनों राज्यों मे मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला है. केंद्र की राजनीति मे तिवारी जी की अहम भूमिका थी. एक समय था जब इन्दिरा गांधी के लिए चुनौती बन गए थे. आज जब भाजपा केंद्र की राजनीति मे एक मजबूत क़िला बनकर उभरी है तब अपनी सेकुलरिज़्म को गलत साबित करके भाजपा के पाले मे बैठ गये है. एस० एम० कृष्ण वोकालीगा समुदाय के एक बड़े नेता है. कर्नाटक मे लिंगायत के बाद वोकालीगा राजनीतिक रूप से बहुत सशक्त है. सोशियलिस्ट प्रजा पार्टी से राजनीति की शुरुआत करते हुए काँग्रेस पहुंचे और 46 वर्ष तक काँग्रेस मे रहते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री, केंद्र मे विदेश मंत्री और राज्यपाल तक का लाभ उठाया. आज अचानक स्थिति ऐसी बनी जब केंद्र मे भाजपा की स्थिति अच्छी हुई तब कृष्ण जी काँग्रेस को अलविदा बोल गये.
ऐसे सैकड़ों नेता है जो कल तक सांप्रदायिक थे और आज सेकुलर बन गये और कल तक सेकुलर थे वह सांप्रदायिक बन गये. प्रश्न यह खड़ा होता है कि यह सेकुलरिज़्म और सांप्रदायिकता के मानक को तय कौन करता है? सेकुलरिज़्म अच्छी व्यवस्था है या सांप्रदायिकता बुरी व्यवस्था है. इस ओपिनियन को स्थापित कौन करता है? कौन पार्टी सेकुलर है और कौन पार्टी सांप्रदायिक, इस ओपिनियन को कौन लोग है जो सेट कर रहे है? यह मुट्ठी के तीन प्रतिशत लोग है जो काँग्रेस, भाजपा, वामपंथ, समाजवादी और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों मे छुपे हुए है और जरूरत पड़ने पर एक पाले से दूसरे पाले मे ट्रान्सफर होते रहते है. जैसे संजय निरूपम, नारायण राणे, नारायण दत्त तिवारी, विजय बहुगुणा, रीता बहुगुणा, एस० एम० कृष्णा इत्यादि है. इन नेताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि को खोदिए तब मालूम चल जाएगा की यह ब्राह्मणवादी है और ब्राह्मणवादियों के लिए सेकुलरिज़्म एक राजनीतिक टूल मात्र है जबकि उनकी प्राथमिकता ब्राह्मणवादी सत्ता को बरकरार रखना है. ब्राह्मणवादी लोग सेकुलरिज़्म को टूल बनाकर काँग्रेस के माध्यम से सत्ता मे पहुँचते है जबकि सांप्रदायिकता का हवा देकर भाजपा की माध्यम से सत्ता मे पहुँचते है.
अरविन्द केज़रीवाल की नाटकीय राजनीति का विश्लेषण कीजिये. आरएसएस और भाजपा को दिन-रात कोसते रहते है. अपनी संघर्ष के शुरुआती दिनों में आरएसएस की बौद्धिक प्रकोष्ठ इणिडया पोलिटिकल फोरम में संघ विचारक राकेश सिन्हा के साथ परिचर्चा में भाग लेते है. साथ ही साथ भाजपा की यूथ विंग अखिल भारतीय विधार्थी परिषद और आरएसएस से सहयोग देने का अपील भी करते है. आम आदमी पार्टी के ही कार्यकर्ता शाहिद आज़ाद के स्टिंग ने यह साबित कर दिया की केज़रीवाल का सेक्युलरिज्म भी मोदी या भाजपा के डर दिखाने तक सिमित है. आज स्थिति यह बन गयी है की सेकुलरिज़्म को जीवित रखने का ठेका मुसलमानों के कंधों पर डाल दिया गया है. आज मुसलमान एक सुरक्षा कवच की तलाश मे रहता है. जहां भी मुसलमानो को थोड़ी सी नर्मी नजर आती है मुसलमान वही स्थापित होने को चाहता है. जबकि मौक़ा मिलते ही दूसरे लोग, जिनके साथ मुसलमान खड़े होते है, सेकुलर से साम्प्रदायिक पाले में चले जाते है. देश का मुसलमान आजतक कंफ्यूज है की आखिर सेक्युलर कौन है?
भारत के तीन प्रतिशत लोग ही ओपिनियन बना रहे है. भाजपा एक बेहतरीन पार्टी है, इसको भी ब्राह्मण तय कर रहा है. वामपंथी ही एकमात्र सेक्युलरिज्म की पुरोधा है, इसको भी एक ब्राह्मण ही साबित कर रहा है. कांग्रेस ही देश को बचा सकती है, इसकी वक़ालत भी एक ब्राह्मण ही कर रहा है. यह सारा खेल ओपिनियन बनाने वाले का है. जब ओवैसी मुसलमानों के जायज़ मुद्दों को लेकर आगे बढ़ता है तब बड़ी शातिर ढ़ंग से ओवैसी को मुसलमानों के द्वारा ही साम्प्रदायिक साबित कर दिया जाता है. जब दलित प्रतिनिधित्व पर बहुजन आगे बढ़ती है तब मायावती को भ्रस्टाचारी का लेबल लगाकर अछूत बना दिया जाता है. लेकिन, मौक़ा मिलते ही संघी, वामपंथी और काँग्रेसी एक खेमे से दूसरे खेमे में कूद जाते है और बेचारा मुसलमान सेक्युलरिज्म को बचाने निकल पड़ता है.
आज ओवैसी का साम्प्रदायिक चरित्र बनाकर बहुत जोरदार तऱीके से विरोध हो रहा है. आप आँकलन कीजिये कि ओवैसी का विरोध करने वाली कांग्रेस, भाजपा और वामपंथी दलों के शीर्ष के नेता कौन है? आप आसानी से समझ सकते है कि यह सारे ब्राह्मण है और यह लोग काफ़ी है किसी के भी विरुद्ध एक नकारात्मक ओपिनियन बनाने के लिए. इनके बनाये हुए ओपिनियन को ही भारत का मुसलमान स्वीकार रहा है. मुसलमानों को यह बात बिलकुल समझ में नहीं आ रहा है की आख़िर यह लोग ओवैसी का विरोध क्यों कर रहे है? इन दलों में बैठे ब्राह्मणवादी चरित्र के लोगों को मालूम है कि आज़ादी के बाद पहली बार कोई मुसलमान नेता खुलकर मुद्दों पर बोल रहा है. आज़ादी के बाद अबतक मुसलमानों के जितना भी नेता उभरे सभी ने व्यक्तिगत लाभ के सामने सामुदायिक लाभ से समझौता किया. इसलिए अलग-अलग पार्टी के मुस्लिम नेता व्यवस्था के विरुद्ध बोलने से डरते रहे. ब्राह्मणवादी चरित्र के इन नेताओं को मालूम है की ओवैसी जब ताकतवर होगा तब शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य में मुसलमानों की भागीदारी और हिस्सेदारी माँगेगा. इसलिए ही वामपंथी, संघी और काँग्रेसी सभी एकसाथ ओवैसी को सेक्युलरिज्म के लिए घातक बताकर पूरा एक ओपिनियन तैयार किया है. आरएसएस भी तो यही चाहती है की भागीदारी नहीं दी जाये और ब्राह्मणवाद हावी रहे.
- तारिक अनवर ‘चम्पारणी’