कौन पद्मिनी? कौनसा खिलजी? कैसी राजपूत शान? इस जाहिलाना सियासत पर लानत!

संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी को बेहद अहम क़रार दिया गया है और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म पद्मावत के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं को ख़ारिज करते हुए इसको दोहराया भी। लेकिन फिल्म के खिलाफ करणी सेना के विरोध ने हिंसा का रुप ले लिया है और पब्ल्कि प्रोपर्टी से लेकर मासूम बच्चे तक इसकी चपेट में आ गए।

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यह हाल शरमनाक और अफसोसनाक ही नहीं हास्यास्पद भी है, क्योंकि न सिर्फ यह कि ‘महारानी’ पद्मिनी का वजूद झूठा और काल्पनिक है, बल्कि अलाउद्दीन खिलजी का उसपर फ़िदा होकर चित्तोड़ पर हमला करने की घटना भी सूफी शायर मलिक मोहम्मद जायसी के कल्पना की ही पैदावार है।

यह तो एक एतिहासिक सच्चाई है चित्तोड़ पर 1303 तक (यानी जब खिलजी ने किला फतह किया) और उसके बाद 1336 से 1557 तक राजपूतों की सरकार रही, लेकिन मेवाड़ की राजपूत इतिहास में पद्मिनी तो क्या किसी भी रानी या महारानी का उल्लेख नहीं पाया जाता। राजपूत इतिहासकार गोरी शंकर हीरा चंद ओझा ने 1936 में छपी अपनी किताब ‘उदयपुर राज्य का इतिहास’ में लिखा है कि चित्तोड़ के रजा रावल रत्न सिंह का सबसे पहले ज़िक्र राजसमन्द के दरेबा में स्थित देवी मंदिर में एक खंबे पर उकेरे एक कुतबे में पाया गया।

इस खंबे में 1301 की इतिहास दर्ज है लेकिन किसी रानी या महारानी आ उल्लेख नहीं। राजा रत्न सिंह का नाम ‘रत्न सिम्हा’ भी इतिहास में दर्ज है और उसके शासनकाल के कुछ सिक्के भी खोज हुए हैं। अलाउद्दीन खिलजी और राजा रावल रत्न सिंह के बीच चित्तोड़ की युद्ध का विस्तृत ब्यान अमीर खुसरू की ‘खज़ाइनुल फतूह’ में मिलता है।

खुसरू अलाउद्दीन खिलजी के दरबार के शायर और उसकी जंगी कारनामों के अधिकारिक संवादाता थे। इस बात के इतिहासिक सबूत मौजूद हैं कि अमीर खुसरू चित्तोड़ के घेराबंदी (1303 जनवरी) से लेकर चित्तोड़ फतह होने (अगस्त 1303) तक वहां मौजूद रहे और सभी युद्ध की स्थिति विस्तृत दर्ज किए हैं।

ए रहमान