ग़ज़ल

यूँ तुझे ढूँढ़ने निकले के न आए ख़ुद भी
वो मुसाफ़िर कि जो मंज़िल थे बजाए ख़ुद भी

कितने ग़म थे कि ज़माने से छुपा रक्खे थे
इस तरह से कि हमें याद न आए खुद भी

ऐसा ज़ालिम कि अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म

मिज़ाहिया ग़ज़ल

बिजली तो कौंदती है मियाँ आसमान में
और थरथरा रहे हो तुम अपने मकान में

आँखों से सुन रहा हूँ मैं आवाज़ आपकी
तसवीर आपकी नज़र आती है कान में

यूँ सामना हमारा बब्बर शेर से हुआ
जब एक तीर भी ना बचा था कमान में

अब आप शौक़ से मुझे ग़ज़लें सुनाईए

शहरयार की चार ग़ज़लें

(1)
हौसला दिल का निकल जाने दे
मुझ को जलने दे, पिघल जाने दे
आंच फूलों पे ना आने दे मगर
ख़स-ओ-ख़ाशाक को जल जाने दे
मुद्दतों बाद सुबह आई है
मौसमे दिल को बदल जाने दे
छा रही हैं जो मेरी आँखों पर
इन घटाओं को मचल जाने दे

क़ुली क़ुतुब शाह

हिंदुस्तान के मशहूर शहर हैदराबाद की बुनियाद रखने वाले उर्दू के पहले साहिबे दीवान शायर क़ुली क़ुतुब शाह ने चारमीनार की तामीर करवाई थी। क़ुली क़ुतुब शाह रियासते गोलकुंडा के फ़रमांरवा थे। वो बडे इलमदोस्त , अरबी और फ़ारसी के माहिर थे।

हवेली पुरानी सजाने लगे हैं

बडनबी लिपस्टिक लगाने लगे हैं
सभी बुड्ढे , सीटी बजाने लगे हैं

इधर देखो नानी भी पौडर लगा को
हवेली पुरानी सजाने लगे हैं

वो बिन दावती जाको बिरयानी ख़ारें
बगैर जाली लट्टू घुमाने लगे हैं

मेरे सारे साले पहलवान बन गए

शिकवा-2

बुत सनम ख़ानों में कहते हैं मुसलमां गये

है ख़ुशी उन को कि काबे के निगहबान गये

मंज़िल-ए-दहर से ऊंटों के हदी ख़वाँ गये

अपनी बग़लों में दबाये हुए क़ुरआन गये

ख़ंदाज़न है कुफ़्र,एहसास तुझे है के नहीं

अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं

शिकवा -1…अल्लामा इकबाल

क्यों ज़ियां कार बनूं,सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक़्रे फ़र्दा ना करूं,महुवे ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल के सुनूं और हमातन गोश रहूँ
हमनवा में भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ

जुरअत आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न है मुझको

फरीद अंजुम की एक मि़ज़ाहिया ग़ज़ल

शेख़ की इक दो नहीं हैं, सात सात
दिलानातुन, बेगमातुन, माशूक़ात

लीडरां , हर रोज़ देते हैं तुड़ी
मछलियातुन, मुर्गियातुन, बकरियात

और बस खावें , बिचारे शाएरां
झिड़कियातुन, गालियॉतुन, बेलनात

याद करते हैं फ़क़त, संडे के दिन

नूर मुहम्मद ‘नूर’: हिंदी में गजल कहता हूं

‘एक जमाने से उर्दू का समझते हैं मुझे/एक मुद्दत से मैं हिंदी में गजल कहता हूं’
जैसे अशआर लिखने वाले नूर मुहम्मद ‘नूर’ ने गजल जैसे उर्दू फॉर्म को हिंदी में कामयाबी से आजमाया है।
पेश है उनकी कुछ ग़ज़लें….

मैं ईद क्या मनाऊँ….! सीमाब अकबराबादी

तख़रीब की घटाएँ घनघोर छा रही हैं
सनकी हुई हवाएँ तूफ़ाँ उठा रही हैं
नाख़्वास्ता बलाएँ दुनिया पे आ रही हैं
ऐसी हमा-हमी में मैं लुत्फ़ क्या उठाऊँ
मैं ईद क्या मनाऊँ

लाखों मकाँ हैं ऐसे जिनके मकीं नहीं हैं

ग़ज़ल (तंज़-ओ-मिज़ाह)

भूले से किसी बात पे हैरान ना होना
महंगाई के हमले से परेशान ना होना

हासिल है अगर क़र्ज़ के मिलने की सहूलत
नेकी के किसी काम से अंजान ना होना

दुनिया को अगर हाथ में रखना है तो प्यारे
दुनिया की किसी शए पे मेहरबान ना होना

अल्ताफ़ हुसैन हालीः डर है मेरी जुबान न खुल जाए

हालांकि अल्ताफ हुसैन हाली अपनी लिखी हुई किताब ‘’मुक़द्दमा शेरो-शायरी’’ के लिए उर्दू की दुनिया में बेहतर तौर पर जाने जाते हैं, लेकिन उनकी शायरी भी कम काबिले दाद नहीं . पेश है उनके कुछ अशआर …

अल्ताफ़ हुसैन हाली
(1837-1914)

जां निसार: मैं जब भी उसके ख्यालों में खो सा जाता हूं

उर्दू के जाने माने शायर जांनिसार अख़तर(पैदाइश: 14 फरवरी 1914 मौत: 19 अगस्त 1976) की ख़ूबी उनकी गजलो की सादा ज़बान और ख़ूबसूरत एहसास हैं। उन्होंने शायरी के इलावा इदारत(संपादन) में भी अनमोल काम किया। उन की किताब हिन्दुस्तां हमारा अपनी तरह की

शहरयार

अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान शहरयार(16 जून 1936-13 फ़रवरी 2012) उर्दू शायरी में मुमताज़ हैसियत रखते हैं। हालाँकि `उमराव’ जान के बाद उनकी शोहरत बुलंदियों पर पहुंच गई थी, लेकिन तबियत ही मिली कुछ ऐसी…

मजरूह सुल्तानपुरी (01 अक्तूबर 1919 – 24 मई 2000)

यूनानी हकीम असरारूल हसन खान को शायरी ने मजरूह सुल्तानपुरी बना दिया। सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश पैदा हुए। हकीमी के दौरान शायरी ने शोहरत दिलाई तो प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी और शेरो-शायरी की दुनिया में मशगूल हो गए। इसी दौरान उनकी मु

शायद

जौन इलिया(14 दिसम्बर 1931 -8 नवम्बर 2002) उर्दू शायरी में म़कबूल हस्तियों में से एक हैं। पाकिस्तानी शायरों में उन्हें ख़ास म़ुकाम हासिल है। अमरोहा उत्तर प्रदेश में पैदा हुए जौन इलिया के वालिद शफ़ीक हसन इलिया भी शायर थे। जौन इलिया उर्दू क

गालिब और आम

अल्लाह जानता है मुहब्बत हमीं ने की
ग़ालिब के बाद आमों की इज्जत हमीं ने की

जैसे भी आम हम को मिले हम ने खा लिये
आमों का मान रखा मुरव्वरत हमीं ने की

खट्टे भी खाये श़ौक से मीठे भी खाये हैं
]िकस्तम के फैसले से ]िकनायत हमीं ने की

हसरत मोहानी

हसरत मोहानी (1875 -1951)

रोशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम

रोशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम

हैरत गुरूर-ए-हुस्न से शोख़ी से इज़तराब
दिल ने भी तेरे सीख लिए हैं चलन तमाम

अमजद हैदराबादी

अमजद हैदराबादी( 7 रजब1305-12 शवाल 1380 )(1878–1961)

सय्यद अहमद हुसैन हूँ अमजद हूँ
हस्सान उल-हिंद सानी सरमद हूँ
क्या पूछते हो हसब ओ नसब को मिरे
मैं बंदा लम यलिद वलम यूलद हूँ