ये साहिब चंद सकूं के लिए क़ब्रिस्तानों पर नाजायज़ क़ब्ज़ों में ग़ैर मुस्लिमों की मदद करते हैं

हैदराबाद । १३। जुलाई : ( नुमाइंदा ख़ुसूसी ) : शहर की मसाजिद के सदूर से मुताल्लिक़ रिपोर्टस की इशाअत का अल्हम्दुलिल्ला हौसला अफ़ज़ा-ए-रद्द-ए-अमल हासिल हो रहा है और लगता है कि अवाम मस्जिद कमेटियों के सदूर के इंतिख़ाब में अब ज़रूर कई अवामिल को पेशे नज़र रखेंगे हम गुज़शता दिनों अपनी रिपोर्टस के ज़रीया ये बताने की कोशिश की है कि बाअज़ अनासिर सिर्फ अपनी दुनिया बनाने के लिए मस्जिद कमेटीयों का सहारा ले रहे हैं ।

ऐसे अनासिर या अफ़राद को इन का मुक़ाम बताना बहुत ज़रूरी है । आईए आज हम आप को एक ऐसे ही साहिब से वाक़िफ़ करवाते हैं जो मस्जिद के सदर तो नहीं लेकिन कमेटी में सैक्रेटरी के ओहदा पर फ़ाइज़ रहते हुए नाजायज़ आमदनी से अपना पेट भर रहे हैं ।

मस्जिद कमेटी में रह कर उन्हों ने एक तरह से अपनी आमदनी का ज़बरदस्त औरमुनाफ़ा बख़श ज़रीया पालिया है । इन साहिब को ख़ौफ़ ख़ुदा है और ना ही इस के बंदों कालिहाज़ बस उन के ज़हन में सिर्फ एक चीज़ ही की सोच सवार रहती है कि मस्जिद को किस तरह लौटा जाय । आप को बतादें कि वो जिस मस्जिद के सैक्रेटरी है इस का शहर की इंतिहाई क़दीम और तारीख़ी मसाजिद में शुमार होता है । वक़्फ़ रिकार्ड के मुताबिक़ इस मस्जिद के तहत जुमला 99 मकानात-ओ-मलगयात हैं ।

सैक्रेटरी साहिब चूँकि असर-ओ-रसूख़ वाले शख़्स हैं इस लिए उन्हों ने अपने ही एक जी हुज़ूर चमचे को कमेटी का सदर बना रखा है और वो सदर रबर स्टैंप की तरह काम करता है जब कि मस्जिद की आमदनी बेचारे ग़रीब सैक्रेटरी साहिब की जेब में चली जाती है । मस्जिद से इस क़दर आमदनी होती है कि सैक्रेटरी साहिब ने एक तरह से उसे अपने लिए सोने की कान बना ली है । मस्जिद के तहत जो मकानात-ओ-मलगयात हैं इन का किराया इतना कम है कि हमें यहां इस बारे में लिखने में भी श्रम आरही है ।

ओक़ाफ़ी जायदादों से किस तरह ग़फ़लत बरती जा रही है इस का अंदाज़ा इन किरायों से लगाया जा सकता है । मस्जिद की मलगयात-ओ-मकानात का किराया 60 ता 70 रुपय वक़्फ़ बोर्ड को अदा किया जाता है । जब कि सैक्रेटरी साहिब इन मकानात के मलगयात-ओ-मकानात का ग़ैरमामूली किराया वसूल कर लेते हैं चूँकि ये मस्जिद इंतिहाई मसरूफ़ तरीन और बिज़नस के लिहाज़ से एहमीयत के हामिल इलाक़ा में वाक़्य है इस लिए किराया भी बहुत ज़्यादा वसूल करते हैं । इस तरह उन्हों ने मस्जिद की आमदनी को अपनी आमदनी में तबदील कर दिया है ।

वाज़िह रहे कि मस्जिद के अतराफ़-ओ-अकनाफ़ ज़्यादा तर ग़ैर मुस्लिम आबाद हैं । जब कि इस इलाक़ा में छोटे बड़े बेशुमार क़ब्रिस्तान मौजूद हैं जो 200 गज़ पाँच सौ गज़ , चार हज़ार गज़ , पाँच हज़ार गज़ से लेकर 13000 गज़ के रक़बे पर फैले हुए हैं । इन क़ब्रिस्तानों पर ग़ैर मुस्लिम क़ाबिज़ होते जा रहे हैं और इस का क्रेडिट मस्जिद के सैक्रेटरी साहिब को ही जाता है । इलाक़ा के क़ब्रिस्तानों पर पुख़्ता मकानात तामीर होरहे क़ब्रिस्तान साफ़ होरहे हैं और उन बेचारों की जेबें भर्ती जा रही हैं ।

बंक बयालनस में मुसलसल इज़ाफ़ा हो रहा है । हाँ तो हम बात कररहे थे कि मस्जिद के अतराफ़ छोटे बड़े दर्जनों क़ब्रिस्तान हैं और मुक़ामी ग़ैर मुस्लिम आबादी उन क़ब्रिस्तानों का वजूद मिटाती जा रही है । मस्जिद के सैक्रेटरी साहिब को एक बाअसर शख़्सियत तसव्वुर करते हैं ।

इस लिए क़ब्रिस्तान की अराज़ी पर नाजायज़ क़बज़े करते हुए मकान तामीर करने से क़बल वो सैक्रेटरी साहिब से रुजू होते हैं और अच्छे ख़ासेमुआवज़ा के ओज़ान की ख़िदमात हासिल कर लेते हैं इस सिलसिला में सैक्रेटरी साहिब ख़िदमत के लिए 24 घंटे दस्तयाब रहते हैं । मुक़ामी ग़ैर मुस्लिम लोग सैक्रेटरी साहिब की तरह वक़्फ़ बोर्ड को भी एक ताक़तवर इदारा तसव्वुर करते हैं ( लेकिन वक़्फ़ बोर्ड की कारकर्दगी सारे मुस्लमान अच्छी तरह जानते हैं ) इस लिए मकान या दुकान की तामीर से पहले सैक्रेटरी साहिब का मुंह और जेब नोटों से भर दिया जाता है । उन्हें यक़ीन होता है कि वक़्फ़ बोर्ड का मसला सैक्रेटरी साहिब सँभाल लेंगे ।

जिस के साथ ही क़ब्रिस्तानों पर नाजायज़ क़बज़े होते देख कर भी इन साहिब की ज़बान से एक लफ़्ज़ भी अदा नहीं होता वो ऐसे ख़ामोश और अंजान बन जाते हैं । जैसे उन्हों ने कुछ देखा नहीं । वो मस्जिद के सैक्रेटरी रहने के बावजूद पता नहीं क्यों नमाज़ों से इजतिनाब करते हैं । बाअज़ मुस्लियों के ख़्याल में इस शख़्स को हमेशा दौलत कमाने की फ़िक्र लाहक़ रहती है । काश ये शख़्सथोड़ा सा ग़ौर-ओ-फ़िक्र करता कि दुनिया फ़ानी है ।

ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं उस कीडोर कभी भी किसी भी वक़्त टूट सकती है और उसे उन्ही क़ब्रिस्तानों में से एक क़ब्रिस्तान में दफ़न होता है जिस पर किए जा रहे नाजायज़ क़ब्ज़ों में वो बड़ी दिलचस्पी से सिर्फ चंद सकूं के इव्ज़ भरपूर मदद करता है । क़ारईन ! ऐसा लगता है कि देन से दूर चंद अफ़राद ने मस्जिद कमेटियों में अपनी शमूलीयत और सदर के ओहदा पर फ़ाइज़ होने को दौलत-ओ-शौहरत कमाने का आसान ज़रीया बना लिया है । ऐसे ही एक साहिब के बारे में हम आप को बताते हैं ये मौसूफ़ जो रईल स्टेट का कारोबार करते हैं । तीन मसाजिद के सदर हैं उन के वालिद दो मसाजिद के सदर थे । उन के इंतिक़ाल के बाद उन्हों ने एक और मस्जिद का इज़ाफ़ा कर लिया । हैरत इस बात की है कि ये साहिब इन तीनों मसाजिद में से किसी भी मस्जिद में नज़र नहीं आते । सिर्फ़ जुमा की नमाज़ पढ़ते हैं । इन साहिब के बारे में मशहूर है कि वो ओक़ाफ़ी जायदादों को पलक झपकते ही अपनी ज़ाती जायदाद में तब्दील कर लेते हैं ।

ओक़ाफ़ी जायदादों की तबाही और प्लाटिंग करते हुए नई बस्तीयां और मुहल्ला जात बसाने के वो माहिर समझे जाते हैं । मौसूफ़ की नज़र में कोई खुली अराज़ी आजाए तो समझिए वो ज़मीन इस के हक़ीक़ी मालिक के हाथों से निकल गई । वो ख़ुद को भाई कहलाना पसंद करते हैं । हमेशा उन के हमराह आठता दस हटे कटे ऐसे बेरोज़गार नौजवान होते हैं जिन के घर वाले ख़ुद उन की अपने मकानात में मौजूदगी बर्दाश्त नहीं करते ।मसाजिद का अगर कोई काम होता है या मसला होता है तो मौसूफ़ मस्जिद में इस पर ग़ौरनहीं करते बल्कि मस्जिद कमेटी के अरकान को उन के घर पर हाज़िरी देनी पड़ती है । तीन तीन मसाजिद के सदर होने के बावजूद मौसूफ़ दीन से बहुत दूर हैं ।

इस्लाम की बुनियादी तालीम से भी वाक़िफ़ नहीं हाँ ओक़ाफ़ी आराज़ीयात को तबाह करना , आराज़ीयात की प्लाटिंग करना , क़ब्रिस्तानों को बस्तीयों में तबदील करदेना , इस मैदान के वो माहिर हैं आप को बतादें कि इन साहिब के घर के क़रीब ही एक ग़ैर आबाद मस्जिद है इसजानिब उन की तवज्जा ही नहीं जाती । इस लिए कि इन के ख़्याल में मस्जिद को आबाद करने के बावजूद आमदनी का कोई ज़रीया वहां मौजूद नहीं है । यानी उल्टा हाथ से लगाना पड़ेगा । इन साहिब का भी मसला ये है कि वो अपने अंजाम से बेख़बर हैं । उन्हें ये जान लेना चाहिए कि ज़िंदगी का सफ़र किसी भी मोड़ पर ख़तन हो सकता है । ज़र , ज़न , ज़मीन कुछ भी रहने वाला नहीं । आज वो जो सौदा कररहे हैं कल वही सौदे उन के लिए परेशानी का बाइस बनने वाले हैं ।

काश वो इस बारे में कुछ देर के लिए ग़ौर कर लेते ! क़ारईन ! गुज़शता तीन यौम से हम मस्जिद के सदूर क्या ऐसे होते हैं के ज़ेर-ए-उनवान जो रिपोर्टस पेश कररहे हैं इस का मक़सद यही है कि मसाजिद कमेटीयों को लैंड गिरा बरस , रयाकारों , दुनिया दारों , बद किरदारों , इंसानियत-ओ-मज़हब के दुश्मनों , सूद ख़ोरों , रूडी शीटरों , मुफ़ाद परस्तों , इलम-ए-दीन से दूर जाहिलों से पाक-ओ-साफ़ किया जाय क्यों कि आज मसाजिद को इन अनासिर ने अपने मुफ़ादात की तकमील का ज़रीया बनालिया है । हालाँकि माज़ी में मसाजिद कमेटी में ऐसे ओहदेदार और सदूर हुआ करते थे जो ख़ुलूस-ए-नीयत के साथ और सिर्फ अल्लाह उज़्व जल की रज़ा के लिए काम करते थे ।

यही वजह थी कि मुहल्ला जात में अमन-ओ-अमान हुआ करता था । मसाजिद झगड़ों से पाक रहती थीं लेकिन आज मसाजिद जैसे मुक़द्दस मुक़ामात में झगड़े आम होगए हैं । मुईन आबाद जामि मस्जिद की सदारत के मसला पर पेश आया क़तल का वाक़िया हमारे लिए एक दरस इबरत है । हम चाहते हैं कि मुईन आबाद मस्जिद वाक़िया पहला और आख़िरी वाक़िया साबित हो । और ये तब ही मुम्किन होगा जब मुहल्ला के सालिह नौजवान बुज़ुर्ग आगे आयेंगे ।।