“बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते”, अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल

ख़ामोश हो क्यों दाद-ए-ज़फ़ा क्यूँ नहीं देते
बिस्मिल हो तो क़ातिल को दुआ क्यूँ नहीं देते

वहशत का सबब रोज़न-ए-ज़िन्दाँ तो नहीं है
मेहर-ओ-महो-ओ-अंजुम को बुझा क्यूँ नहीं देते

इक ये भी तो अन्दाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है
ऐ चारागरो! दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते

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मुंसिफ़ हो अगर तुम तो कब इन्साफ़ करोगे
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यूँ नहीं देते

रहज़न हो तो हाज़िर है मता-ए-दिल-ओ-जाँ भी
रहबर हो तो मन्ज़िल का पता क्यूँ नहीं देते

क्या बीत गई अब के “फ़राज़” अहल-ए-चमन पर
यारान-ए-क़फ़स मुझको सदा क्यूँ नहीं देते

(अहमद “फ़राज़”)