रमज़ान उल-मुबारक में मुस्लमान इबादतों में मसरूफ़ रहते हैं , फिल्मों की रीलीज़ से नुक़्सान होगा

हैदराबाद ।२१ जुलाई : ( नुमाइंदा ख़ुसूसी ) : टी वी चिया नलों पर गुज़शता कई रोज़ से दिखाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में बड़ी बजट की कई हिन्दी , तलगो और टामल फिल्में रीलीज़ होने वाली हैं । लेकिन अब इन ही चिया नलों पर दिखाए जा रहे मुबाहिस में हिस्सा लेने वाले डायरैक्टरस , प्रोड्यूसर्स और ख़ुद फ़िल्म अदाकारों का कहना है कि रमज़ानमें फिल्में रीलीज़ कर के वो तबाह-ओ-बर्बाद होना नहीं चाहते ।

इस लिए वो इस माह केख़तन पर यानी ईद के मौक़ा पर अपनी इन फिल्मों की नुमाइश करेंगे । फ़िल्मी सनअत सेवाबस्ता माहिरीन के इन मुबाहिस के दौरान बाअज़ डायरैक्टरों और प्रोड्यूसर्स ने यहां तक कहदया कि वो रमज़ान में अपनी फ़िल्म रीलीज़ करने का जोखिम इस लिए नहीं ले सकते क्यों कि मुस्लमान माह रमज़ान के दौरान इबादतों में मसरूफ़ होजाते हैं जब कि ग़ैर मुस्लिम शायक़ीन फिल्म्स के लिए ये महीना कमाने का महीना होता है । फ़िल्मी सनअतसे जुड़ी इन हस्तीयों के ब्यानात से ज़ाहिर होता है कि बहुत सारे मुस्लमान सिनेमा हाल जाकर फिल्में देखते हैं इस तरह वो डायरैक्टरों प्रोडयूसरों और फ़िल्म अदाकारों के बंक बयालनस में इज़ाफ़ा का बाइस बन रहे हैं ।

प्रोडयूसरों का कहना है कि मुस्लमानों के फिल्में ना देखने से फ़िल्म इंडस्ट्री को बहुत नुक़्सान बर्दाश्त करना पड़ता है । ग़ैर मुस्लिम प्रोड्यूसर्स को अच्छी तरह अंदाज़ा है कि मुस्लमान रमज़ान उल-मुबारक का बहुत एहतिरामकरते हैं । इस माह में वो नेकियां करते हैं बुराईयों से बचते हैं । इबादतों में सारा दिन गुज़ारते हैं । यहां तक कि रात के औक़ात में भी वो मसाजिद में नज़र आते हैं । मुस्लमानों के लिए रमज़ान उल-मुबारक बुराईयों , गुनाहों से बचने और नेकियां कमाने का महीना है । बेशक इन प्रोड्यूसर्स-ओ-डायरैक्टरों का कहना दरुस्त है वैसे आम दिनों में शहर की कोई ऐसी थियटर नहीं जहां हमारे भाई और लड़कीयां नज़र ना आएं । हम ने हज़ारहा मर्तबाशहर की थियटरों में क़तार में ठहरी लड़कीयों को टिकट हासिल करते और फिर अपनी सहेलीयों या ब्वॉय फ्रेंड्स के साथ थियटर में दाख़िल होते हुए देखा है ।

ये फिल्मों और टी वी के बेहूदा फिल्मों और प्रोग्राम्स का ही नतीजा है कि कोर्ट मैरेज , लो मैरेज और ग़ैर मुस्लिम लड़कों से शादीयों के वाक़ियात रौनुमा होरहे हैं । हम ने कुछ माह क़बल नए शहर के सिनेमा घरों का तफ़सीली जायज़ा लिया था जिस पर पता चला कि कोई शो भी मुस्लिमख़वातीन और लड़कीयों के बगै़र नहीं रहा जब कि गुज़शता रिपोर्ट में हम ने बताया था कि कई बदनसीब ख़वातीन बड़ी बेशरमी से फ़िल्म के टिक्टस ब्लैक भी करती हैं । थियटरस हमारे नौजवानों से भरे नज़र आए । हमारे लिए कितनी हैरत की बात है कि इस जानिब ग़ौर करने की हमें फ़ुर्सत ही नहीं होती । एक माह इबादत और फिर ग्यारह माह पुरानी रविष पर चलते हैं ये कहां की अक़लमंदी है ।

अल्लाह ताली इसी बंदा की तौबा को क़बूल फ़रमाते हैं जो गुनाह ना करने का मुसम्मम इरादा कर लेता है लेकिन हमारा हाल ये है किरमज़ान उल-मुबारक में हक़ीक़ी मुस्लमान बन जाते हैं और इस माह-ए-मुबारक के बाद अपनी पुरानी रविष पर लौट आते हैं । जहां तक फ़िल्म प्रोड्यूसर्स का सवाल है ये लोग फ़िल्म की रीलीज़ से क़ब्ल अच्छी तरह मार्केटिंग सर्वे करते हैं शायक़ीन फ़िल्म के मूड और हालात का जायज़ा लेते हैं और जब उन्हें अपना फ़ायदा नज़र आता है तो फ़िल्म रीलीज़ करदेते हैं । फ़िल्मी सनअत से वाबस्ता अफ़राद का ये कहना है कि रमज़ान उल-मुबारक में फ़िल्म रीलीज़ करना मुम्किन ही नहीं ।

इस से सिवाए नुक़्सान के कुछ नहीं होता । इस बात को साबित करता है कि फ़िल्म इंडस्ट्री को चलाने में मुस्लिम फ़िल्म बीनों का अहम रोल है हालाँकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि फ़िल्म देखने से जहां तीन घंटे का क़ीमतीवक़्त ज़ाए होता है वहीं पैसे की भी बर्बादी होजाती है साथ ही दामन से गुनाह भी चिमट जाते हैं ।

क़ारईन ! थोड़ा सा ग़ौर कीजिए और सोचिए कि क्या हम तीन घंटे बेहूदा हरकातको पर्दा पर देखते हुए गुज़ार कर और बड़ी मेहनत से कमाए हुए पैसों को तबाह कर के अल्लाह और इस के रसूल ई को नाराज़ नहीं कररहे हैं ? कभी होसके तो फ़िल्म देख कर सिनेमा घरों या थियटरों से निकलने वालों के चेहरों पर नज़र डालिए आप को यक़ीन ऐसा लगेगा कि ये लोग कोई गुनाह कर के आएं हैं और उन के चेहरों पर नदामत-ओ-अफ़सोस का एहसास नुमायां होता है ।

कुछ अर्सा क़बल पुराना शहर की एक थियटर में ( चारमीनार के क़रीब ) पंखा गिरने से एक ख़ातून की मौत होगई थी । पंखा चूँकि सर पर गिरा था इस का चेहरा तक बदल गया था उस वक़्त ख़ुद इस बदनसीब ख़ातून के रिश्तेदार ये कहने के लिए भी शर्मा रहे थे कि वो ख़ातून उन की अज़ीज़ है और बड़ी मुश्किल से नाश हासिल कर के दीगर रिश्तेदारों को इत्तिला दीए बगै़र ही उस की तदफ़ीन करदी गई । इस वाक़िया से ये सोचना चाहिए कि मौत कहीं भी और किसी भी वक़्त आसकती है ।

अगर अच्छे मुक़ाम पर मौत आए तो एक मुस्लमान के लिए वो अल्लाह का इनाम ही समझा जाएगा । बहरहाल माह रमज़ान उल-मुबारक की हद तक ही नेकियां करने की बजाय साल तमाम सच्चे मुस्लमान बनने में ही हमारी कामयाबी है वर्ना बदनसीबी और ज़िल्लत हमें अपनी लपेट में ले सकती है ।।