“ उठो सोने वाले सहरी का वक्त है, उठो अल्लाह के लिये अपनी मगफिरत (गुनाहों की माफी ) के लिये ” जैसे पुर तरन्नुम गीत गाते और शेरो-शायरी करते पुरानी तहजीब के रहनुमा माने जाने वाले फेरीवालों की सदाएं वक्त के थपेड़ों और समय ने ऐसी आवाजो को खामोश कर दिया है
एक जमाने में माहे रमजान में तराना हर तरफ सुनाई देता था मगर दिलो और हाथों की तंगी ने इस रिवायत को खत्म सा कर दिया है उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ स्थित प्रमुख इस्लामी शोध संस्थान ‘दारुल मुसन्निफीन’ के उप प्रमुख मौलाना मुहम्मद उमेर ने कहा कि सहरी के लिये जगाना फेरीवालों की समाजी पहचान हुआ करती थी.
पुरानी तहजीब के रहनुमा माने जाने वाले ये फेरीवाले रमजान में देहातों और शहरों में रात को लोगों को सहरी की खातिर जगाने के लिये शेरो शायरी करते हुए निकलते हैं. ज्यादातर फेरीवाले फकीर बिरादरी के होते हैं.
मौलाना उमेर ने बताया कि सहरी के लिये जगाने के एवज में लोग ईद में उन्हें बख्शीश देते थे लेकिन अब लोगों के दिल और हाथ तंग पड़ गये हैं. यही वजह है कि सहरी के लिये जगाने की परम्परा अब दम तोड़ रही है. अब फेरीवालों की जगह लाउडस्पीकर और अलार्म घड़ी ने ले ली है.