बिंत-ए-लमहात

तुम्हारे लहजे में जो गर्मी-ओ-हलावत है
इसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह
गनीम-ए-नूर का हमला कहो अँधेरों पर
दयार-ए-दर्द में आमद कहो मसीहा की
रवाँ-दवाँ हुए ख़ुशबू के क़ाफ़िले हर सू
ख़ला-ए-सुबह में गूँजी सहर की शहनाई

तू इस वक़्त अकेला होगा

दुख की लहर ने छेड़ा होगा
याद ने कंकड़ फेंका होगा

आज तो मेरा दिल कहता है
तू इस वक़्त अकेला होगा

मेरे चूमे हुए हाथों से
औरों को ख़त लिखता होगा

भीग चलीं अब रात की पलकें
तू अब थक कर सोया होगा

रेल की गहरी सीटी सुन कर

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ

तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ

बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम रात बसर की किसी गुलाब के साथ

ज़िंदगी है ज़ात-ए-गुम गुशता के फिर पाने का ना

ज़िंदगी है ज़ात-ए-गुम गुशता के फिर पाने का नाम
मौत क्या है? आप अपने से बिछड़ जाने का नाम

रहरवी क्या है मुसलसल ठोकरें खाने का नाम
रहबरी है ठोकरें खाकर सँभल जाने का नाम

अब्र क्या है ज़ुल्फ़ के शानों पे लहराने का नाम

बिखरते टूटते लम्हों को अपना हमसफर जाना

बिखरते टूटते लम्हों को अपना हमसफर जाना
था इस राह में आखिर हमें खुद भी बिखर जाना

हवा के दोश पे बादल के टुकड़े की तरह हम हैं
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हमको किधर जाना

मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी

दिल की बात लबों पर लाकर,

हबीब जालिब की इस ग़ज़ल को मेहदी हसन और मु्न्नी बेगम व दीगर कई गुलूकारों ने गाकर मक़बूल किया है।

दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं
हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं

एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं

सिमट सिमट सी गई थी ज़मीं किधर जाता

सिमट सिमट सी गई थी ज़मीं किधर जाता
मैं उस को भूला जाता हूँ वरना मर जाता

मैं अपनी राख कुरेदूँ तो तेरी याद आये
न आयी तेरी सदा वरना मैं बिखर जाता

तेरी ख़ुशी ने मेरा हौसला नहीं देखा
अरे मैं अपनी मुहब्बत से भी मुकर जाता

चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा

चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा

बुझ गई आस, छुप गया तारा
थरथराता रहा धुआँ तन्हा

ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा

हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी
दोनों चलते रहें कहाँ तन्हा

…पर यकीं से भी कभी

अली सरदार जाफ़री उर्दू की तरक्की पसंद शायरी में अहम मुक़ाम रखते हैं। उनकी नज़्मों में जदीद ज़िन्दगी की पेचीदगिया भी हैं और हुस्नो इश्क की बारीकिया भी। उनकी एक ग़जल यहाँ पेश है।

मैं जहां तुम को बुलाता हूं वहां तक आओ

अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था

अंदाज़ हू-ब-हू तिरी आवाज़-ए-पा का था
देखा निकल के घर से तो झोंका हवा का था

इस हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ पे लुट कर भी शाद हूँ
तेरी रज़ा जो थी वो तक़ाज़ा वफ़ा का था

उट्ठा अजब तज़ाद से इंसान का ख़मीर
आदी फ़ना का था तो पुजारी बक़ा का था

वो चाँदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है

वो चाँदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है
बहुत अज़ीज़ हमें है मगर पराया है

उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिए बनाया है

महक रही है ज़मीं चाँदनी के फूलों से
ख़ुदा किसी की मोहब्बत पे मुस्कुराया है

बेटियों ने सर दबाया देर तक

वो रुलाकर हँस न पाया देर तक
जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक

भूलना चाहा कभी उस को अगर
और भी वो याद आया देर तक

भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक

गुनगुनाता जा रहा था इक फ़क़ीर
धूप रहती है ना साया देर तक

वह निशानी भी तअस्सुब की शरारत खा गई

प्यार को सदियों के एक लम्हे कि नफरत खा गई
एक इबादतगाह ये गन्दी सियासत खा गई

बुत कदों की भीड़ में तनहा जो था मीनार-ए-हक़
वह निशानी भी तअस्सुब की शरारत खा गई

मुस्तक़िल फ़ाक़ो ने चेहरों की बशाशत छीन ली

मुझे क्या ख़बर मिरे सामने तिरी चांदनी की शराब है

मुझे क्या ख़बर मिरे सामने तिरी चांदनी की शराब है
मिरी आँखों पर बड़ी देर से घने आंसुओं का नक़ाब है

मिरे दिल में टीस उठी अगर कभी दश्त में तो समझ गया
कहीं दूर दर्द की छांव में तिरी उँगलियों में रबाब है

ज़रा सी देर ठहरने दे ऐ गमे-दुनिया

किसी कली ने भी देखा न आँख भर के मुझे
गुज़र गयी जरसे-गुल उदास कर के मुझे

मैं सो रहा था किसी याद के शबिस्ताँ में
जगा के छोड़ गये काफिले सहर के मुझे

मैं रो रहा था मुकद्दर की सख़्त राहों में
उड़ा के ले गये जादू तिरी नज़र के मुझे

तेरी खुश्बू में बसे ख़त में जलाता कैसे….

प्यार की आखिरी पूंजी भी लुटा आया हूँ
अपनी हस्ती भी लगता है मिटा आया हूँ
उम्र भर की जो कमाई थी वो गंवा आया हूँ
तेरे खत आज मैं गंगा में बहा आया हूँ
आग बहते हुए पानी में लगा आया हूँ.

तूने लिखा था जला दूँ मैं तिरी तहरीरें

सागर ऐसा होता है

जब वो मिलने आ जाता है, अक्सर ऐसा होता है
नज़रें जम कर रह जाती हैं, मंज़र ऐसा होता है

हमको कुछ मालूम नहीं था, मैख़ाने के बारे में
तेरी आँख से पी कर जाना, साग़र ऐसा होता है

जिस ने प्यार क्या वो जाने , कोई यकीं माने ना माने

हम आईने हैं तिरी दीद को तरसते हैं

अगरचे पास तिरे इर्द गिर्द बस्ते हैं
हम आईने हैं तिरी दीद को तरसते हैं

हमारी फसलों को जिन की अशद ज़ुरूरत है
वह अब्र! दूर बहुत दूर जा बरसते हैं

जो कल तलक थे जफ़ाकारियों के रखवाले
वह नाग अब भी वफ़ादारियों को डसते हैं

फ़िक्रिया

सप्रिटिज़म की ये बला क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

बेटे जलते हैं माएं मरती हैं
या इलाही ये माजरा क्या है

हम भी तेलुगू हैं तुम भी तेलुगू हो
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है

अपने भाई का ख़ूँ करते वक़्त
काश पूछो कि मुद्दुआ क्या है